SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन कितना ही पेलो, बालू में से तेल निकलना सम्भव नहीं है; उसीप्रकार सुख की प्राप्ति के लिए संयोगों की शोध-खोज में किये गये सम्पूर्ण प्रयत्न निरर्थक ही हैं, उनसे सुख की प्राप्ति कभी भी सम्भव नहीं है। सुख की प्राप्ति के लिए तो सुख के सागर निजस्वभाव की शोध-खोज आवश्यक है, निजस्वभाव का आश्रय आवश्यक है, उसी का ज्ञान-श्रद्धान आवश्यक है, ध्यान आवश्यक है। . - इसप्रकार का चिन्तन ही संसारभावना का मूल है। जिसप्रकार संयोग न सुखस्वरूप हैं और न सुख के कारण हैं, उसीप्रकार न दु:खरूप हैं और न दु:ख के कारण ही हैं; वे तो परपदार्थ हैं, निमित्तमात्र हैं। दुःख के मूलकारण तो संयोगीभाव हैं, संयोग के आश्रय से उत्पन्न हुए आत्मा के ही विकारीभाव हैं। संयोगीभाव-विकारीभाव ही वस्तुत: संसार हैं। इस सन्दर्भ में निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य हैं - "परद्रव्यन तैं प्रीति जो, है संसार अबोध। ताको फल गति चार में, भ्रमण कह्यो श्रुतशोध॥ अरु संसारभावना एह, परद्रव्यन सौं कीजे नेह। तू चेतन ये जड़ सरवंग, ता” तजहु परायो संग॥ वास्तव में तो परद्रव्यों के प्रति जो प्रीति का भाव है, एकत्व है, राग है, अज्ञान है; वही संसार है। शास्त्रों के शोधियों ने उसी का फल चतुर्गतिरूप भ्रमण बताया है। ___ परद्रव्यों से किया गया स्नेह वस्तुतः संसार है। हे आत्मन्! तू चेतन है और शरीरादि परद्रव्य सर्वांग जड़ हैं; इसलिए इनसे स्नेह छोड़ दो - इसप्रकार का चिंतन ही संसारभावना है।" उक्त दोनों छन्दों में परद्रव्यों के प्रति प्रीति - स्नेह को ही संसार कहा गया है और इसी प्रीति को चतुर्गति-भ्रमण का कारण बताया गया है। चूंकि परसंग १. पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा कृत बारह भावना, छन्द ३ २. भैया भगवतीदास कृत बारह भावना, छन्द ४
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy