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________________ संसारभावना दुखमय निरर्थक मलिन जो सम्पूर्णतः निस्सार है। जगजालमय गति चार में संसरण ही संसार है । भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण संसार का आधार है। संयोगजा चिवृत्तियाँ ही वस्तुतः संसार है ॥१॥ संयोगों के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाली दु:खमय, निरर्थक, मलिन और सम्पूर्णतः निस्सार चिद्वृत्तियाँ (विकारी भाव) ही वास्तविक संसार है; जगजालमय चतुर्गतिभ्रमण को भी संसार कहा जाता है। भ्रमरोग (मिथ्यात्वअज्ञान) के वश होकर भव-भव में परिभ्रमण ही संसार का मूल आधार है। संयोग हों अनुकूल फिर भी सुख नहीं संसार में। संयोग को संसार में सुख कहें बस व्यवहार में ॥ दुख-द्वन्द हैं चिवृत्तियाँ संयोग ही जगफन्द है। निज आतमा बस एक ही आनन्द का रसकन्द है ॥२॥ अनुकूल संयोगों की प्राप्ति होने पर भी संसार में सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अनुकूल संयोगों की प्राप्ति को सुख मात्र व्यवहार से ही कहा जाता है। वास्तव में तो सभी संयोग संसार के फन्द ही हैं, फन्दे में फंसानेवाले ही हैं और मानसिक द्वन्द्वरूप चिवृत्तियाँ भी दुःखरूप ही हैं । आनन्द का रसकन्द तो एकमात्र अपना आत्मा ही है, शेष सब तो दंद-फंद ही हैं।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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