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________________ २६ अनित्यभावना : एक अनुशीलन __ध्यान रखने की बात यह है कि इस छन्द में तो असमानजातीय पर्यायरूप एकक्षेत्रावगाही शरीर की नश्वरता का ही भान कराया गया है; पर पं. दौलतरामजी ने तो इस सीमा को और भी विस्तृत कर दिया है। वे लिखते हैं - "जोवन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी । इन्द्रिय भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ॥ जवानी, घर, गाय-भैंस, स्त्री, घोड़ा, हाथी, आज्ञाकारी सेवक, इन्द्रियों के भोग - ये सभी वस्तुएँ बिजली के समान चंचल और इन्द्रधनुष के समान क्षणस्थाई हैं।" निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि - "जं किचिवि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ नियमेण । परिणामसरूवेण वि ण य किंचि वि सासयं अस्थि ॥ जम्मं मरणेण समं, संपजइ जोवणं जरा सहियं । लच्छी विणास सहिया, इय सव्वं भंगुरं मुणह ॥ जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसका नियम से .नाश होगा; क्योंकि परिणामस्वरूप से तो कुछ भी नित्य नहीं है। जन्म मरण से, यौवन बुढ़ापे से एवं लक्ष्मी विनाश से सहित ही उत्पन्न होती है। इसप्रकार सभी वस्तुओं को क्षणभंगुर जानो।" अनित्यभावनासम्बन्धी उक्त कथनों में यद्यपि संयोगी पदार्थों एवं पर्यायों की क्षणभंगुरता का ही ज्ञान कराया गया है; तथापि प्रयोजन उनसे विरक्ति उत्पन्न करना है, दृष्टि को वहाँ से हटाकर स्वभावसन्मुख ले जाना है। यही कारण है कि अनित्यभावना में जहाँ एक ओर पर्यायों की अनित्यता की चर्चा की जाती है तो दूसरी ओर द्रव्यस्वभाव की नित्यता का ज्ञान भी कराया जाता है। १. छहढाला; पंचम ढाल, छन्द ३ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४ व ५
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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