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________________ धर्मभावना : एक अनुशीलन .निज आतमा को जानना पहिचानना ही धर्म है। निज आतमा की साधना आराधना ही धर्म है॥ शुद्धातमा की साधना आराधना का मर्म है। निज आतमा की ओर बढ़ती भावना ही धर्म है। आरंभिक नौ भावनाओं में ज्ञेयरूप संयोग, हेयरूप आस्रवभाव एवं उपादेयरूप संवर-निर्जरा के सम्यक् चिन्तन के उपरान्त लोक और बोधिदुर्लभभावना में यह विचार किया गया है कि इस षद्रव्यमयी पुरुषाकार लोक . में रत्नत्रयरूप बोधि की उपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ है। चूँकि रत्नत्रयरूप बोधि ही वास्तविक धर्म है; अतः इस धर्मभावना में निज भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म का ही विचार किया जाता है, चिन्तन किया जाता है, धर्म की ही बारंबार भावना भाई जाती है। धर्म का स्वरूप आचार्य समन्तभद्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः॥ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को धर्म के ईश्वर सर्वज्ञदेव धर्म कहते हैं। यदि यही दर्शन-ज्ञान-चारित्र मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हों, तो संसार को बढ़ानेवाले हैं।" __धर्मभावना का क्षेत्र असीम है; क्योंकि उसमें एक प्रकार से सम्पूर्ण चरणानुयोग ही समाहित हो जाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में सर्वाधिक स्थान १. रत्नकरण्डश्रावकाचार, छन्द ३
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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