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________________ बोधिदुर्लभभावना : एक अनुशीलन इस चिन्तन- प्रक्रिया का आशय यह है कि जगत् में अपनी वस्तु की प्राप्ति सुलभ और परवस्तु की प्राप्ति दुर्लभ मानी जाती है। गहराई में जाकर विचार करें तो यह बात सत्य भी प्रतीत होती है; क्योंकि जो अपनी वस्तु है, वह तो सदा उपलब्ध ही है, उसकी प्राप्ति दुर्लभ कैसे हो सकती है? पर यहाँ बात ज्ञानस्वभाव की नहीं; अपितु सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्ररूप स्वभावपर्याय की है, जो अनादि से उपलब्ध नहीं है । १५६ यद्यपि यह बात सत्य है कि सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप स्वभाव - पर्याय अनादि से नहीं है; तथापि अनादि-अनन्त सदा उपलब्ध ज्ञानस्वभाव के दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन, जानने का नाम सम्यग्ज्ञान और उसी में जमने - रमने का नाम सम्यक्चारित्र है; अतः सदा उपलब्ध त्रिकाली ध्रुव आत्मा के दर्शन भी स्वाधीन होने से सुलभ ही हैं। जबकि लौकिक संयोग पराधीन होने से सहज सुलभ नहीं, दुर्लभ हैं। यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि एक ओर तो रत्नत्रयरूप बोधि को महादुर्लभ बताया जा रहा है और दूसरी ओर सुलभ । दोनों में सत्य क्या है ? भाई ! उक्त दोनों प्रकार के कथन परस्पर विरोधी नहीं, अपितु एक-दूसरे 'पूरक ही हैं। इस बात को समझने के लिए हमें बारह भावनाओं की चिन्तनप्रक्रिया के मूल में जाना होगा, उसका उद्देश्य समझना होगा । के लोकभावना और धर्मभावना के बीच में समागत बोधिदुर्लभभावना का मूल अभिप्रेत यह है कि यह आत्मा इस षट्द्रव्यमयी विस्तृत लोक से दृष्टि हटाकर ज्ञानानन्दस्वभावी निजलोक को जानकर - पहिचानकर, उसी में जम जाने, रम जानेरूप रत्नत्रयस्वरूप धर्मदशा को शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त कर अनन्त सुखी हो । अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम उपलब्ध मनुष्यपर्याय की दुर्लभता का भान कराया जाता है और फिर उसकी सार्थकता के लिए रत्नत्रय प्राप्त करने की प्रेरणा देने के लिए रत्नत्रय की दुर्लभता का भान कराया जाता है । तदर्थ भरपूर प्रेरणा भी दी जाती है। साथ ही संयोग अनेक बार उपलब्ध हो गये हैं - यह बताकर उनके प्रति विद्यमान आकर्षण को कम किया जाता है।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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