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________________ १४६ लोकभावना : एक अनुशीलन यह चिन्तन किया जाता है। निजतत्त्व की तीव्रतम रुचि जागृत करने के लिए निजतत्त्व की मुख्यता से किया गया लोक का चिन्तन ही लोकभावना है। भावनाओं का स्वरूप और चिन्तन-प्रक्रिया विवेचनात्मक या निरूपणात्मक न होकर वैराग्यप्रेरक एवं आत्मोन्मुखी होने से लोकभावना के संदर्भ में 'लोक' शब्द का अर्थ 'आत्मा' भी किया जाता रहा है। जिसमें सम्पूर्ण लोक आलोकित हो - ऐसा आत्मा ही चैतन्यलोक है। लोक शब्द की इसप्रकार की व्याख्याएँ भी की जाती रहीं । भगवती आराधना में इसे सतर्क सिद्ध किया गया है, जो इसप्रकार है यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते । कथं ? सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात् । " यद्यपि लोक अनेकप्रकार का है अर्थात् लोक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं; तथापि यहाँ लोक शब्द से जीवद्रव्य को ही लोक कहा जा रहा है; क्योंकि यहाँ जीव की धर्मप्रवृत्ति का प्रकरण चल रहा है । " - वृहद्रव्यसंग्रह में व्यवहार - लोकभावना का इकतीस पृष्ठों में निरूपण करने के उपरान्त अन्त में निश्चय - लोकभावना का स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट किया गया है "जिसप्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकते हैं; उसीप्रकार आदि, मध्य और अन्त रहित, शुद्ध - बुद्ध एक स्वभाववाले परमात्मा के सम्पूर्ण निर्मल केवलज्ञान में शुद्धात्मा आदि सभी पदार्थ आलोकित होते हैं, दिखाई देते हैं, ज्ञात होते हैं - इसकारण वह आत्मा ही निश्चयलोक है अथवा उस निश्चयलोकरूप निजशुद्धात्मा में अवलोकन ही निश्चयलोक है । - तथा समस्त शुभाशुभ संकल्प-विकल्पों के त्यागपूर्वक निजशुद्धात्म भावना से उत्पन्न परमसुखामृतरस के स्वाद के अनुभवरूप, आनन्दरूप जो भावना है; वही निश्चय से लोकभावना है, शेष सब व्यवहार है।" १. भगवती आराधना, गाथा १७९२ की उत्थानिका, पृष्ठ ७९८ २. वृहद्रव्यसंग्रह, पृष्ठ १६२-१६३
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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