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________________ १४४ लोकभावना : एक अनुशीलन सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ तेरा जन्म न हुआ हो। हे आत्मन् ! तू इस जन्मभूमि में ही क्यों रच-पच रहा है। यदि कर्मों के बन्धन से बचना है तो इससे अपनत्व तोड़ो, राग छोड़ो; इसी में भला है। लोक माँहि तेरो कछु नाहि, लोक आन तुम आन लखाहिं। वह षद्रव्यन को सब धाम, तू चिन्मूरति आतमराम॥ इस जगत में तेरा कुछ भी नहीं है। जगत अलग है और तू अलग है - यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है; क्योंकि जगत षद्रव्यों का आवास है, षद्रव्यमयी है और तू चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा है।" उक्त छन्दों में जगत से भेदविज्ञान एवं वैराग्यभाव पर ही विशेष बल दिया गया है, लोक के स्वरूप या आकार पर नहीं; अत: यह अत्यन्त स्पष्ट है कि लोकभावना के चिन्तन में जगत से विरक्ति एवं भिन्नता की प्रबलता ही मुख्य है। एक सौ उनहत्तर गाथाओं में लोकभावना का विस्तृत विवेचन करने के उपरान्त कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय लोकभावना के चिन्तन का फल बताते हुए लिखते हैं - "एवं लोयसहावं जो झायदि उवसमेक्सब्भाओ। सो खविय कम्मपुँजं तस्सेव सिहामणी होदि ॥२ . इसप्रकार लोक के स्वरूप को उपशमभाव से जो पुरुष एक (आत्म) स्वभावरूप होता हुआ ध्याता है; वह कर्मसमूह का नाश करके उस ही लोक का शिखामणी होता है अर्थात् सिद्धदशा को प्राप्त होता है।" कार्तिकेयानुप्रेक्षा के हिन्दी वनिकाकार पंडितप्रवर श्री जयचन्दजी छाबड़ा लोकानुप्रेक्षा की वचनिका लिखने के उपरान्त लोकानुप्रेक्षा की सम्पूर्ण विषय-वस्तु का उपसंहार करते हुए सारांश के रूप में एक कुण्डलिया लिखते हैं, जो इसप्रकार है - १. भैया भगवतीदास कृत बारह भावना २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २८३
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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