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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १२५ इसप्रकार भेदविज्ञान है मूल जिसका और आत्मानुभूति है सर्वस्व जिसका - ऐसी यह संवरभावना अतीन्द्रिय-आनन्दरूप एवं परमवैराग्य की जननी है। संवरभावना संबंधी उक्त समग्र चिन्तन का सार पर और पर्याय से भिन्न निज भगवान आत्मा के सन्मुख होना है, स्वयं को सही रूप में जानना, पहिचानना है एवं स्वयं में ही समा जाना है। ___ अतः सम्पूर्ण जगत इस संवरभावनारूपी ज्ञानगंगा में आकण्ठ निमग्न होकर स्वभावसन्मुख हो, अपने में ही जम जावे, अपने में ही रम जावे और अनन्त अतीन्द्रिय-आनन्द को प्राप्त करे - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ। विनय और विवेक विनय के बिना तो विद्या प्राप्त होती ही नहीं है, पर विवेक और प्रतिभा तो अनिवार्य है, इनके बिना भी विद्यार्जन असम्भव है। गुरु के प्रति अडिग आस्था का भी महत्वपूर्ण स्थान है, पर वह आतंक की सीमा तक न पहुँचना चाहिए, अन्यथा वह विवेक को कुण्ठित कर देगी। समागत समस्याओं का समुचित समाधान तो स्वविवेक से ही संभव है; क्योंकि गुरु की उपलब्धि तो सदा और सर्वत्र सम्भव नहीं। परम्पराएं भी हर समस्या का समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकती; क्योंकि एक तो समस्याओं के अनुरूप परम्पराओं की उपलब्धि सदा सम्भव नहीं रहती, दूसरे, परिस्थितियाँ भी तो बदलती रहती है। ___ यद्यपि विवेक का स्थान सर्वोपरि है, किन्तु वह विनय और मर्यादा को भंग करनेवाला नहीं होना चाहिए। विवेक के नाम पर कुछ भी कर डालना तो महापाप है, क्योंकि निरकुंश विवेक पूर्वजों से प्राप्त श्रुतपरम्परा के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। क्षेत्र और काल के प्रभाव से समागत विकृतियों का निराकण करना जागृत विवेक का ही काम है, पर इसमें सर्वांग सावधानी अनिवार्य है। ___- आप कुछ भी कहो, पृष्ठ २५
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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