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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १११ यही कारण है कि आस्रवभावना में द्रव्यास्रव की अपेक्षा भावास्रव के चिन्तन की प्रधानता रहती है। अजीव, आस्रव, बंध, पुण्य, पाप से भिन्न भगवान आत्मा की आराधना, साधना ही संवर है, निर्जरा है; जिनकी विस्तृत चर्चा आगे संवर-निर्जरा भावनाओं में होगी ही। पुण्य-पापरूप मोह-राग-द्वेष भावों से भगवान आत्मा की भिन्नता की सम्यक् जानकारी बिना अनादिकालीन अज्ञान दूर नहीं होता और कर्मों का आस्रव भी नहीं रुकता। समयसार में तो यहाँ तक कहा है - "जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोहंपि । अण्णाणी तावदु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो ॥ कोहादिसु वटुंतस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदि । जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहि ॥ जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव । णादं होदि विसेसंतरं तु तइया ण बंधो से ॥ जबतक यह जीव आत्मा और आस्रव - इन दोनों में परस्पर अन्तर और भेद नहीं जानता है; तबतक वह अज्ञानी रहता हुआ क्रोधादिकरूप आस्रवभावों में ही प्रवर्तित रहता है। क्रोधादिक में प्रवर्तमान जीव के कर्मों का संचय होता है। जीव को कर्मबंधन की प्रक्रिया सर्वज्ञदेव ने इसीप्रकार बताई है। जब यह जीव आत्मा और आस्रवों का अन्तर और भेद जानता है, तब उसे बंध नहीं होता।" अत: यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम आत्मा और आत्मा की ही पर्याय में उत्पन्न मोह-राग-द्वेषरूप-पुण्य-पापरूप आस्रवभावों की परस्पर भिन्नता भली-भाँति जानें, भली-भाँति पहिचानें तथा आत्मा के उपादेयत्व एवं आस्रवों १. समयसार गाथा ६९-७०-७१
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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