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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन ९३ नहीं है, बुद्धिमानी का काम नहीं है । इस देह से अत्यन्त भिन्न स्वभाव से ही परमपवित्र निज भगवान आत्मा की साधना-आराधना करना ही इस मानवजीवन में एकमात्र करने योग्य कार्य है। इसप्रकार हम देखते हैं कि अनित्यभावना से लेकर अशुचिभावना तक का सम्पूर्ण चिन्तन संयोगी पदार्थों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है। संयोगी पदार्थों में भी आत्मा के अत्यन्त निकटवर्ती संयोगी पदार्थ होने से शरीर ही केन्द्रबिन्दु बना रहा है। अनित्यभावना में मृत्यु की चर्चा करके शरीर के संयोग की ही क्षण - भंगुरता का चिन्तन किया गया है। अशरणभावना में 'मरने से कोई बचा नहीं सकता' की बात करके शरीर के संयोग को अशरण कहा जाता है। इस संसार में अनेक देहों को धारण किया, पर किसी देह के संयोग में सुख प्राप्त नहीं हुआ । शरीर के संयोग-वियोग का नाम ही तो जन्म-मरण है; जन्म-मरण के अनन्त दुःख भी जीव अकेला ही भोगता है, कोई भी संयोग साथ नहीं देता; देहादि सभी संयोगी पदार्थ आत्मा से अत्यन्त भिन्न ही हैं - यही चिन्तन एकत्व और अन्यत्व भावनाओं में होता है। स्व और पर शरीर की अशुचिता का विचार ही अशुचिभावना में किया जाता है। इसप्रकार यह निश्चित है कि उक्त सम्पूर्ण चिन्तन देह को केन्द्रबिन्दु बनाकर ही चलता है। उक्त सम्पूर्ण चिन्तनप्रक्रिया का एकमात्र प्रयोजन दृष्टि को देहादि संयोगी पदार्थों पर से हटाकर स्वभावसन्मुख ले जाना है। उक्त प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर ही अनित्यादि भावनाओं की चिन्तन-प्रक्रिया का स्वरूप निर्धारण हुआ है। अनादिकाल से ही इस आत्मा ने अज्ञानवश इन देहादि संयोगी पदार्थों में एकत्व और ममत्व स्थापित कर रखा है, इनमें ही सुख-दुःख की कल्पना कर रखी है। इस एकत्व, ममत्व और अज्ञान के कारण इन शरीरादि संयोगी पदार्थों के प्रति इसे अनन्त अनुराग बना रहता है। उसी अनुरागवश यह निरन्तर इन्हीं की साज-सँभाल में लगा रहता है । यद्यपि यह सत्य है कि इसके सँभालने के विकल्पों से देहादि संयोगों के परिणमन में कोई अन्तर नहीं पड़ता है; तथापि यह उनकी सँभाल के विकल्पों
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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