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________________ अनेकान्त और स्याद्वाद "मैं कहाँ तक कहूँ, बड़े-बड़े नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जैनमत का खण्डन किया है; वह ऐसा किया है, जिसे सुन-देख हंसी आती है। स्याद्वाद यह जैनधर्म का अभेद्य किला है; उसके अन्दर वादी-प्रतिवादियों के मायामयी गोले नहीं प्रवेश कर सकते। जैनधर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्त्वज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।" संस्कृत के उद्भट विद्वान डॉ. गंगानाथ झा के विचार भी द्रष्टव्य हैं "जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैनसिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है; तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे वेदान्त के आचार्य ने नहीं समझा और जो कुछ अबतक मैं जैनधर्म को जान सका हूँ; उससे मेरा दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्म को उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैनधर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।" 'स्यात्' पद का ठीक-ठीक अर्थ समझना अत्यन्त आवश्यक है। इसके सम्बन्ध में बहुत भ्रम प्रचलित हैं। कोई स्यात् का अर्थ संशय करते हैं, कोई शायद, तो कोई सम्भावना। इस तरह वे स्याद्वाद को शायदवाद, संशयवाद या सम्भावनावाद बना देते हैं। स्यात्' शब्द 'तिङन्त' न होकर 'निपात' है। वह सन्देह का वाचक न होकर एक निश्चित अपेक्षा का वाचक है। 'स्यात्' शब्द को स्पष्ट करते हुए तार्किकचूड़ामणि आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं - "वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणं । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात् तवकेवलिनामपि ॥' 'स्यात्' शब्द निपात है। वाक्यों में प्रमुख यह शब्द अनेकान्त का द्योतक वस्तुस्वरूप का विशेषण है।" शायद, संशय और सम्भावना में एक अनिश्चय है। अनिश्चय अज्ञान का सूचक है। स्याद्वाद में कहीं भी अज्ञान की झलक नहीं है। वह जो कुछ कहता १. तीर्थंकर वर्द्धमान, पृष्ठ ९२ श्री वी. नि. ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर २. तीर्थंकर वर्द्धमान, पृष्ठ ९४ श्री वी. नि. ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर ३. आप्तमीमांसा, श्लोक १०३
SR No.009442
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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