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________________ अनेकान्त और स्याद्वाद कहा भी है . - "जं वत्थु अणेयन्तं, एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं । सुयणाणेण णएहि य, णिरवेक्खं दीसदे णेव ॥ ११ जो वस्तु अनेकान्तरूप है, वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्तरूप भी है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा अनेकान्तरूप है और नयों की अपेक्षा एकान्तरूप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का रूप नहीं देखा जा सकता है । " अनेकान्त में अनेकान्त की सिद्धि करते हुए अकलंकदेव लिखते हैं - "यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का सर्वथा लोप किया जाय तो सम्यक् एकान्त के अभाव में, शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह, तत्समुदायरूप अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा । अतः यदि एकान्त ही स्वीकार कर लिया जावे तो फिर अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्व लोप का प्रसंग प्राप्त होगा।" सम्यकान्त नय है और सम्यगनेकान्त प्रमाण' । अनेकान्तवाद सर्वनयात्मक है । जिसप्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुन्दर हार बन जाता है; उसीप्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वादरूपी सूत में पिरो देने से सम्पूर्ण नय श्रुतप्रमाण कहे जाते हैं । परमागम के बीजस्वरूप अनेकान्त में सम्पूर्ण नयों (सम्यक् एकान्तों) का विलास है, उसमें एकान्तों के विरोध को समाप्त करने की सामर्थ्य है'; क्योंकि विरोध वस्तु में नहीं, अज्ञान में है। जैसे - एक हाथी को अनेक जन्मान्ध व्यक्ति छूकर जानने का यत्न करें और जिसके हाथ में हाथी का पैर आ जाय वह हाथी को खम्भे के समान, पेट पर हाथ फेरने वाला दीवाल के समान, कान पकड़ने वाला सूप के समान और सूँड पकड़ने वाला केले के स्तम्भ के समान कहे १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २६१ २. राजवार्तिक, अ. १, सूत्र ६ की टीका ३. वही, अ. १ सूत्र ६ की टीका ४. स्याद्वादमंजरी, श्लोक ३० की टीका पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक २ ५.
SR No.009442
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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