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________________ ७८ दशकरण चर्चा २. प्रत्यक्ष को नहीं मानने का प्रसंग उपस्थित होगा; क्योंकि क्रोधादि औदयिक भाव होते हैं, यह देखने में एवं वेदन में भी आते हैं। इसलिए प्रत्यक्ष को न मानने का अक्षम्य अपराध होगा । ३. उदयरूप करण को सभी स्वीकार करेंगे तो ही उदयकरण का अस्तित्व रहेगा; ऐसा तो स्वरूप नहीं है। उदयकरण तो अपने कारण से अनादिकाल से है । उसका कार्य दुनिया में सर्वत्र बड़े पैमाने पर देखने को मिल रहा है। कोई विशेष क्रोधादि कषाय करते हुए दुनियाँ में प्रसिद्धि को भी प्राप्त होते हैं। कोई अत्यन्त मंदकषायरूप जीवन बिताते हुए स्पष्ट देखने में आते हैं। यह सब कार्य उदयकरण की हीनाधिकता के कारण होते हैं। ४. प्रथमानुयोग में तीव्र कषायी जीव नरक में जाते हैं। मंदकषायी जीव स्वर्ग में जाते हैं और जो जीव अपने ज्ञानानन्दस्वभावी निजात्मा में रमन करते हैं वे मोक्ष में जाते हैं; इसको सिद्ध करने वाली अनेक कहानियाँ पाई जाती हैं। इन कहानियों से भी औदयिक परिणामों का निर्णय होता है। इसलिए उदयकरण मानना चाहिए। ५. उदयकरणरूप कारण का कार्य चतुर्गति एवं ८४ लाख योनियों में अनादि से परिभ्रमणरूप यह संसार ही सिद्ध नहीं होगा। जो संसार (मोह, राग, द्वेषरूप दुखद अवस्था) सभी के अनुभव में आ रहा है। ६. अरहन्त अवस्था में मूक केवली, उपसर्ग केवली, छोटी-बड़ी अवगाहना, वर्णादि में भेद, आयु में हीनाधिकता आदि उदयकरण से ही सिद्ध होते हैं। ७. दुःखरूप संसार सिद्ध नहीं होगा तो मुक्त अवस्था भी कहाँ से सिद्ध होगी? उदयकरण नहीं मानने से इसप्रकार आगम प्रमाण से बाधा आयेगी। २३. प्रश्न: क्या उदय के अन्य प्रकार से भी भेद हैं? उत्तर - हाँ, हैं। दो भेद हैं- स्वमुख-उदय, परमुख उदय । marak [3] D[Kailash Data Ananji Adhyatmik Duskaran Book (41) आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ. ३ २४. प्रश्न: स्वमुख उदय किसे कहते हैं? उत्तर : विवक्षित प्रकृति का स्वरूप से ही उदय होना स्वमुख से उदय है। जैसे - आयुकर्म आदि सभी मूल प्रकृतियों का उदय । २५. प्रश्न : परमुख उदय किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए । ७९ उत्तर : परस्पर संक्रमण योग्य प्रकृतियों में स्तुबिक संक्रमण आदि पूर्वक उनका उदय होना, परमुख से उदय हैं। जैसे - तिर्यंचादि गतिनामकर्म प्रकृतियों का मनुष्य गतिनाम कर्मरूप से उदय । २६. प्रश्न: क्या कर्म के उदयकरण का उपयोग किसी ग्रन्थकर्ता आचार्य महाराज ने किसी शास्त्र में अध्यात्म पोषण के लिए अर्थात् आत्मा के अकर्तापन को सिद्ध करने के लिए भी किया है? उत्तर : हाँ, आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने ही ग्रन्थाधिराज समयसार शास्त्र के बंधाधिकार में अनेक स्थान पर उदयकरण का अध्यात्म पोषण लिये अत्यन्त सफलता पूर्वक उपयोग किया है। समयसार शास्त्र के टीकाकार आचार्य श्री अमृतचन्द्र एवं आचार्य श्री जयसेन महाराज ने भी अपनी संस्कृत टीका आत्मख्याति एवं तात्पर्यवृत्ति में उसी को स्पष्ट किया है। सब गाथाएँ एवं पूर्ण टीका का उद्धरण देने से यह पुस्तक विशालकाय हो जायेगी; इसलिए हम यहाँ मात्र गाथाओं का हिन्दी अर्थ ही दे रहे हैं; जिससे शंका का समाधान हो । "जीव आयुकर्म के उदय से जीता है ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। तू परजीवों को आयुकर्म तो देता नहीं है; फिर तूने उनका जीवन कैसे दिया? जीव आयुकर्म के उदय से जीता है ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। परजीव तुझे आयुकर्म तो देते नहीं है; फिर उन्होंने तेरा जीवन कैसे किया ? यदि सभी जीव कर्म के उदय से सुखी-दुःखी होते हैं और तू उन्हें कर्म तो देता नहीं है; तो तूने उन्हें सुखी दुःखी कैसे किया ?? १. गाथा समयसार, पृष्ठ ७५, गाथा - २५१ २. गाथा समयसार, पृष्ठ७६, गाथा - २५४
SR No.009441
Book TitleAdhyatmik Daskaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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