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________________ भावदीपिका चूलिका अधिकार अब बंधकरण के विषय को समझने के लिए यहाँ पण्डित श्री दीपचन्दजी कासलीवाल कृत भावदीपिका शास्त्र के चूलिका अधिकार के विशेष उपयोगी अंश को दिया जा रहा है। अर्वाचीन हिन्दी साहित्य में मात्र पण्डित दीपचन्दजी कासलीवाल का यह चूलिका अधिकार ही दसकरण समझने में अतिशय अनुकूल एवं विषय को विशदरूप से समझने में उपयोगी है। पाठक स्वयमेव इस विभाग की अपनी-अपनी स्वतंत्र उपयोगिता समझ लेंगे, ऐसी आशा है। आगे का अंश भावदीपिका का है - "१. प्रथम कर्म की बंधकरण अवस्था कहते हैं - नवीन कर्म परमाणुओं का जीव के प्रदेशों से एकक्षेत्रावगाह संबंध होना, उसे बंध कहते हैं। वह बंध चार प्रकार का है - प्रदेशबंध, प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध । जो सिद्धराशि के अनन्तवें भाग और अभव्यराशि से अनन्तगुणे प्रमाण मात्र ऐसे कर्मरूप होने योग्य पुद्गल परमाणुओं का समय-समय ग्रहण होता है, उसे समयप्रबद्ध कहते हैं। उसका ग्रहण होकर आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप संबंध होना, उसे प्रदेशबंध कहते हैं। जो पुद्गल कर्म परमाणु ज्ञानावरणादि मूल - उत्तर प्रकृतिरूप परिणमते हैं, उसे प्रकृतिबंध कहते हैं। जो अपनी-अपनी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट स्थिति लिये हुए ठहरते हैं / रहते हैं, उसे स्थितिबंध कहते हैं। जो अपने-अपने कार्यरूप रस देने की शक्ति का जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अविभाग अर्थात् अंश का उत्पन्न होना, उसे अनुभागबंध कहते हैं। इसप्रकार चार प्रकार से बंध का स्वरूप जानना । 3D Kailash D Ananji Adhyatmik Duskaran Book (14) आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (बंधकरण ) उनमें प्रदेशबंध और प्रकृतिबंध योगों से होता है। नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए मन, वचन, काय की चेष्टा का निमित्त पाकर आत्मा के प्रदेशों का चंचल / कम्पन होना, उससे आत्मा में कर्म ग्रहण करने की शक्ति होती है, उसका नाम योग है। उससे पौद्गलिक कर्म वर्गणाओं का ग्रहण होता है, उसे प्रदेशबंध कहते हैं। २७ उन मन, वचन, काय की चेष्टा शुभाशुभ प्रवृत्ति रूप से दो प्रकार की है, वह आत्मा के शुभाशुभ भावों से होती है। जब आत्मा शुभ लेश्यादि बाईस शुभभावों रूप परिणमता है, तब मन-वचन-काय द्वारा जो शुभकार्यरूप प्रवृत्ति होती है, उसका नाम शुभयोग है। जब अशुभ लेश्यादि उन्नीस अशुभ भावोंरूप परिणमता है, तब वहाँ मन-वचन-काय की अशुभ कार्यरूप प्रवृत्ति हो, उसका नाम अशुभयोग है। जब शुभयोग होने से शुभकर्म परमाणुओं का बंध होता है; तब शुभरूप सातावेदनीय आदि कर्म प्रकृतियों का ही बंध होता है। जब अशुभयोग होने से अशुभ कर्मपरमाणुओं का बंध होता है तब अशुभरूप असातावेदनीय आदि कर्म प्रकृतियों का बंध होता है। स्थितिबंध, अनुभागबंध कषाय से होता है। इसलिए आत्मा १. ( मनुष्यगति, देवगति, पीत, पद्म, शुक्ल (५) + मतिश्रुत, अवधि एवं मनः पर्यय ज्ञान = (४) + दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ५+ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, देशसंयम, क्षायोपशमिक चारित्र, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन ६ + औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र = २२२ शुभभाव ।) २. ( नरकगति, तिर्यंच गति = (२) + क्रोध, मान, माया, लोभ = (८) + स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद = (३) + मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम असिद्धत्व = (४) + कृष्ण, नील, कापोत लेश्या = (३) + कुमति, कुश्रुति, विभंगावधि = १९ अशुभभाव ।)
SR No.009441
Book TitleAdhyatmik Daskaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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