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________________ 43 सुखी होने का सच्चा उपाय नहीं; अतः उसके प्रति राग भी सीमित ही है, असीम नहीं । अपना बेटा यद्यपि अच्छा भी नहीं है, सच्चा भी नहीं है; पर अपना है; अपना होने से उससे राग भी असीम है, अनन्त है । - इससे सिद्ध होता है कि अपनापन ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । आज तक इस आत्मा ने देहादि पर-पदार्थों में ही अपनापन मान रखा __ है । अतः उन्हीं की सेवा में सम्पूर्णतः समर्पित है। निज भगवान आत्मा में एक क्षण को भी अपनापन नहीं आया है; यही कारण है कि उसकी अनन्त उपेक्षा हो रही है । देह की संभाल में हम चौबीसों घंटे समर्पित हैं और भगवान आत्मा के लिए हमारे पास सही मायनों में एक क्षण भी नहीं है। भगवान आत्मा अनन्त उपेक्षा का शिकार होकर सोतेला बेटा बनकर रह गया है । हम इस जड़ नश्वर शरीर के प्रति जितने सतर्क रहते हैं, आत्मा के प्रति हमारी सतर्कता उसके सहस्रांश भी दिखाई नहीं देती । यदि यह जड़ शरीर अस्वस्थ हो जावे तो हम डॉक्टर के पास दौड़े-दौड़े जाते हैं; जो वह कहता है, उसे अक्षरशः स्वीकार करते हैं; जैसा वह कहता है, वैसे ही चलने को निरन्तर तत्पर रहते हैंउससे किसी प्रकार का तर्क-वितर्क नहीं करते । यदि वह कहता है कि तुम्हें कैंसर है तो बिना मीन-मेख किये स्वीकार कर लेते हैं । वह कहे ऑपरेशन अतिशीघ्र होना चाहिए और एक लाख रुपये खर्च होंगे, तो हम कुछ भी आना-कानी नहीं करते, मकान बेचकर भी भरपूर सीजन के समय ऑपरेशन कराने को तैयार रहते हैं । डॉक्टर की भरपूर विनय करते हैं, लाखों रुपये देकर भी उसका आजीवन एहसान मानते हैं । पर जब आत्मा का डॉक्टर बताता है कि आपको मिथ्यात्व का भयंकर कैंसर हो गया है, उसका शीघ्र इलाज होना चाहिए तो उसकी बात पर एक तो हम ध्यान ही नहीं देते, और देते भी हैं तो हजार बहाने बनाते हैं । प्रवचन का समय अनुकूल नहीं है, हम बहुत दूर रहते हैं,
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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