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________________ आत्मा ही है शरण 202 __ "हाँ, हाँ; एकदम । तुम तो देवांगनाओं से भी सुन्दर हो, पर मैं तुम्हें पसन्द आया या नहीं ?" - एकदम अस्त-व्यस्त-सा युवक बोला, पर लड़की नीची निगाह किए मात्र मुस्कुरा कर ही रह गई । सुसभ्य एवं सुसंस्कृत भारतीय कन्यायें अपनी सहमति इसप्रकार ही व्यक्त करती हैं । मौन सम्मति लक्ष्णम् - मौन सम्मति का ही लक्षण है - इस बात को जानने वाले विवेक के धनी तो सब समझ ही जाते हैं, पर आकुल-व्याकुल वह युवक कुछ भी न समझ सका, अपितु उसकी आशंका और भी अधिक प्रबल हो उठी । अतः घबड़ाकर वह उसके हाथ-पैर जोड़ने लगा और कहने लगा कि तुम मुझे अस्वीकार न कर देना, अन्यथा मेरा जीना ही मुश्किल हो जावेगा । ___ उसकी यह व्याकुलता देखकर कन्या उससे विरक्त हो गई; क्योंकि उसे तो ऐसा पति चाहिए था कि जिसकी वह विनय करे, पर यहाँ तो उल्टा ही होने लगा था । ___ जिसप्रकार ऐसे हीन व्यक्तित्व के धनी पुरुषों को भारतीय ललनाएं पसन्द नहीं करती, उसीप्रकार मुक्ति पर्याय पर भी इस सीमा तक रीझनेवालों को मुक्ति नहीं मिलती । जिसप्रकार अपने पौरुष से गौरवान्वित पुरुषों के गले में ही सुयोग्य कन्यायें वरमाला डालती हैं, उसीप्रकार भगवान स्वरूप अपने आत्मा पर रीझे पुरुषों के गले में ही मुक्तिरूपी कन्या वरमाला डालती है। जो व्यक्ति मोक्ष अर्थात् सिद्धदशा की सुखकरता-सुन्दरता देखकर-जानकर उसकी महिमा से इतने आक्रांत हो जाते हैं कि उन्हें अपना स्वभाव ही तुच्छ भासित होने लगता है; वे उस युवक के समान हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं और मुक्ति (सिद्धदशा) की कामना में पंचपरमेष्ठी के सामने गिड़गिड़ाने लगते हैं - ऐसे लोगों को मुक्ति प्राप्त नहीं होती । ___ दीन-हीन व्यवहार में लीन पुरुषो को मुक्ति प्राप्त नहीं होती । इस बात को बनारसीदासजी इसप्रकार व्यक्त करते हैं :
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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