SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा ही है शरण आत्मा के कल्याण के इच्छुक पुरुषों को, चाहे वे साध्यभाव से उपासना करें या साधकभाव से उपासना करें, पर उपासना तो नित्य निज भगवान आत्मा की ही करना चाहिए । 199 यह निज भगवान आत्मा की उपासना ही आत्मा की शरण में जाना है। उक्त गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने इसी की भावना भायी है । उक्त गाथाएँ मोक्षपाहुड की १०४ एवं १०५वीं गाथाएँ हैं और उसके ठीक पहले १०३वीं गाथा में आचार्य कहते हैं : "विएहिं ज गविज्जई झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं । थुत्वतेहिं थुणिज्जइ देहत्यं किं पि तं मुह ॥ हे भव्यजीवो ! जिनको सारी दुनिया नमस्कार करती है, वे भी जिनको नमस्कार करें; जिनकी सारी दुनिया स्तुति करती है, वे भी जिनकी स्तुति करें एवं जिनका सारी दुनिया ध्यान करती है, वे भी जिनका ध्यान करें;ऐसे इस देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा को जानो ।" वंदनीय पुरुषों द्वारा भी वंदनीय, स्तुति योग्य पुरुषों द्वारा भी स्तुत्य एवं जगत के योग्यपुरुषों द्वारा भी ध्येय पुरुषों का भी ध्येय यह भगवान आत्मा ही शरण में जाने योग्य है यह जानकर ही आत्मा की शरण में जाने की बात कही गई है । पंचपरमेष्ठी भगवन्तों ने भी जिसकी शरण को ग्रहण कर रखा है और रत्नत्रय धर्म भी जिसकी शरण का ही परिणाम है; उस भगवान आत्मा को ही जानने की प्रेरणा दी गई है इस गाथा में । उसे ही जानने- पहिचानने का आदेश दिया है आचार्य भगवन्त ने और उसी में जम जाने, रम जाने का उपदेश आता है तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में । यह बात द्वादशांगरूप दिव्यध्वनि का सार है, यही बात लाख बात की बात है, और यही कोटि ग्रन्थों का सार है । जैसा निम्नांकित पंक्तियों में कहा गया है - -:
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy