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________________ जीवन-मरण और सुख-दुख कोई मुझे वचाले या सुखी कर दे इस भावना से दीन-हीन इस जगत को समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे भाई ! तू एक बार गंभीरता से विचार तो कर कि क्या तेरी आयु शेष रहते कोई तुझे मार सकता है, आयु समाप्त हो जाने पर भी क्या कोई तुझे बचा सकता है, अशुभ कर्मों का उदय रहते क्या तुझे कोई सुखी कर सकता है तथा शुभकर्मों का उदय विद्यमान होने पर भी क्या तुझे कोई दुःखी कर सकता है? यदि नहीं तो फिर क्यों व्यर्थ ही भयाक्रान्त होता है, दीन-हीन होकर किसी के सामने गिड़गिड़ाता भी क्यों है ? 111 - अनिर्णय की स्थिति में पड़े हुए संशयग्रस्त प्राणी के भय और दीनता का एक ही कारण है और यह है अन्य को अपने जीवन-मरण और सुख-दुःख का कारण मानना । इसीप्रकार इसके अभिमान का कारण भी यह मानना है कि मैं दूसरों को मार सकता हूँ, बचा सकता हूँ; सुखी-दुःखी कर सकता हूँ। 'मैं दूसरों को मार सकता हूँ' इस मान्यता से उत्साहित होकर यह दूसरों को धमकाता है, अपने अधीन करना चाहता है । इसीप्रकार 'मैं दूसरों को बचा सकता हूँ' इस मान्यता के आधार पर भी दूसरों को अपने अधीन करना चाहता है । सुखी - दुखी कर सकने की मान्यता के आधार से भी इसीप्रकार की प्रवृत्तियां विकसित होती हैं । 1 - इसप्रकार हम देखते हैं कि पर में हस्तक्षेप करने की कुत्सित भावना ही इसके मन को अशान्त करती है, आकुल व्याकुल करती है, दीन-हीन बनाती है । यदि हम चाहते हैं कि हमारा चित अशांत न हो, आकुल-व्याकुल न हो, भयाक्रांत न हो, दीन-हीन न हो तो हमें आचार्य कुन्दकुन्द की उक्त पंक्तियों पर गहराई से विचार करना चाहिए, चिन्तन करना चाहिए, मनन करना चाहिए । किसी अन्य के कुछ करने धरने से तो हमारा हित-अहित होता ही नहीं है, किसी के आशीर्वाद और शाप से भी कुछ नहीं होता ।
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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