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________________ [ आप कुछ भी कहो नहीं होता था और न यह ही विश्वास होता था कि उन्होंने चोरी की होगी। मर्ज को ला-इलाज मानकर वे भी इस ओर से उदास हो गये थे। (१०) जब सेठजी एक दिन अचानक उनके यहाँ पहुँचे, तो वे दोनों एक-दूसरे को ढंग से पहिचान ही न सके; क्योंकि वे दोनों ही कुछ ही महीनों में लगभग आधे रह गये थे। एक-दूसरे को नहीं पहिचानने का दोनों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, होना भी नहीं चाहिए था; क्योंकि जब वे वर्षों एक साथ रहे, फिर भी एक-दूसरे को सही रूप में न जान सके; जान गये होते तो आज सत्य जानने के लिए सेठजी को उनके पास क्यों आना पड़ता? जब उन्हें उनके घरवाले ही न पहिचान पाये तो और लोग कैसे पहिचानते? जानना आसान है, पर पहिचानना नहीं; क्योंकि पहिचानने में जो गहराई है, वह जानने में कहाँ ? __ जो भी हो, सेठजी ने बहुत घुमा-फिरा कर कई बार पूछा, पर पण्डितजी से उससे अधिक कुछ न उगलवा सके, जितना उन्होंने उनके घर जाकर कड़ा देते समय बताया था। पण्डितजी मानों पत्थर हो गये थे। उन्होंने विचित्रताओं के बारे में शास्त्रों में तो बहुत पढ़ा था, पर जीवन में साक्षात् दर्शन अभी हो रहे थे। (११) यह घटना शीतकाल के आरम्भ में ही घटी थी। पर माघ की कड़कती सर्दी वातावरण को उतना ठंडा नहीं बना सकी थी, जितना ठंडा सामाजिक वातावरण को इस घटना ने कर दिया था। अब न कोई पंच था न पंचायत। उनके बिना मानो पंचायत भंग-सी ही हो गई थी। न अब कोई अनाथों की सुननेवाला रहा था और न दुखियारी विधवाओं की समस्याओं का समाधान करनेवाला ही। सामाजिक कार्यक्रमों की फसल पर मानों तुषार ही पड़ गया था।
SR No.009439
Book TitleAap Kuch Bhi Kaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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