SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रोध के कारण उसने अपना सारा जीवन बरबाद कर दिया। ऐसे क्रोध में विवेक शून्य होकर व्यक्ति अपना बड़ा अहित कर देते हैं और बाद में पछताते रहते हैं। प्राणियों का वास्तविक शत्रु यह क्रोध ही है, क्योंकि वह उनके दोनो लोकों के नाश, पाप संचय, नरक प्राप्ति और स्व-पर के अहित का कारण है। क्रोध एक शान्ति भंग करने वाला मनोविकार है । वह क्रोध करने वाले की मानसिक शान्ति तो भंग कर ही देता है, साथ ही वातावरण को भी कलुषित और अशान्त कर देता है। क्रोध का एक खतरनाक रूप है बैर | बैर क्रोध स भी खतरनाक मनोविकार है। वस्तुतः वह क्रोध का ही एक विकृत रूप है, बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। क्रोध के आवेश में हम तत्काल बदला लेने की साचते हैं | सोचते क्या हैं – तत्काल बदला लने लगत हैं। जिसे शत्रु समझते हैं, क्रोधावेश में उसे भला-बुरा कहने लगते हैं, मारने लगते हैं | पर जब हम तत्काल कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न कर मन ही मन उसके प्रति क्रोध को इस भाव स दबा लेते हैं कि अभी मौका ठीक नहीं है, अभी तुरन्त आक्रमण करने से हमें हानि हो सकती है, शत्रु प्रबल है, मौका लगने पर बदला लेंगे, तब वह क्रोध बैर का रूप धारण कर लेता है और वर्षों दबा रहता है तथा समय आने पर प्रकट हो जाता है। बैर क्रोध से भी अधिक खतरनाक है, यद्यपि जितनी तीव्रता और वग क्रोध में दखने में आता है उतना बैर में नहीं, तथापि क्रोध का काल बहुत कम है, जबकि बैर पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। क्रोध और भी अनक रूपों में पाया जाता है। झल्लाहट, चिड़चिड़ाहट, आदि भी क्राध के ही रूप हैं। जब हमें किसी की कोई (73
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy