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________________ स्वरूप की प्राप्ति के लिये लगातार धारावाही भेदविज्ञान की भावना करे, आत्मा का अनात्मा से भिन्न मनन करे । ( श्री ज्ञानभूषणा भट्टारक, तत्त्वज्ञान तरंगिणी) आत्मा और शरीर का संबंध दूध और पानी के समान है । जिसे सम्यग्ज्ञानी जीव रत्नत्रय के मार्ग पर चलकर अलग-अलग कर लेता है । तू चेतन यह देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी । मिले अनादि यतनतें बिछुड़े, ज्यों पय अरु पानी ।। तू चेतन है यह देह अचेतन है । यह शरीर जड़ है, तू ज्ञानी है, दोनों का अनादि काल से मेल बना हुआ है । पर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके रत्नत्रय के मार्ग पर चलकर दोनों को पृथक-पृथक किया जा सकता है । सम्यग्ज्ञान होते ही शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान हो जाता है, आत्मा की सही पहचान हो जाती है। अतः पर के आकर्षण को छोड़कर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करो । इस जीव ने अनादिकाल से मोहरूपी मदिरा को पी रखा है, इसलिये अपनी आत्मा को भूलकर व्यर्थ ही संसार में भ्रमण करता हुआ दुःखी हो रहा है । श्रीमद् रायचन्द्र जी ने लिखा है "निज स्वरूप समझे बिना पाया दुःख अनन्त ।" जीव अपनी भूल से ही दुःखी है, भूल कितनी कि स्वयं अपने को ही भूल गया और पर को अपना माना । यह कोई छोटी भूल नहीं है परन्तु सबसे बड़ी भूल है । अपनी ऐसी महान भूल के कारण बेभान होकर जीव चारों गतियों में घूम रहा है । किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरे ने उसको दुःखी किया या कर्मों ने उसको रुलाया । सीधी सादी यह बात है कि जीव अज्ञान के कारण स्वयं निज स्वरूप को भूलकर अपनी ही भूल से रुला व दुःखी हुआ, जब सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करके वह अपनी भूल मेटे तब 762
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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