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________________ कोई पर- कारण नहीं है । वैसे ही ये पदार्थ स्वतः स्वयं में परिणमते रहते हैं, मैं इनका क्या करता हूँ ? देखो, भैया! " होता स्वयं जगत परिणाम, मै जग का करता क्या काम | " पर यह जीव सदा यही कहता रहता है कि यह पुत्र मेरा है, यह स्त्री मेरी है, यह मकान मेरा है, आदि अनेक पदार्थों को अपना बनाया करता है और उनके प्रति कर्तव्यभाव रखता है । अन्य की तो बात ही क्या? यह 'हमारा' कहा जाने वाला शरीर भी हमारा नहीं है, अन्त में यह भी साथ छोड़ देगा। आत्मा को ही अकेला जाना होगा । अतः जब तक हमने पर - पदार्थों को और स्वयं को अलग-अलग न समझा तब तक वह आत्मिक सुख, वास्तविक सुख भी अलग रहेगा । आत्मा में विद्यमान जो अनन्त सुख है, वह तो प्रकट होने के लिये तैयार ही है, हम ही तो विषयों मे फँसकर, अन्य पदार्थों से मोह बढ़ाकर उसे प्रगट नहीं होने देते। फिर भी हम सुखी होना चाहते हैं, यह आश्चर्य की बात है । यदि सुखी होना है, तो सम्यग्ज्ञान प्राप्त करो स्व को स्व और पर को पर समझो । मोह, राग, द्वेष का विनाश होने से दुःख का भी विनाश हो जता है और सुख का संचार आत्मा में होता है। लोग सुख पाने का प्रयत्न करते हैं, पर वे सच्चे सुख का स्वरूप नहीं जानते, और उसको प्रकट करने की विधि भी नहीं जानते । जिसे आप चाहते हैं, उसे जब आप जानते ही नहीं तो भैया ! फिर उस सुख को कैसे पाओगे? वह सुख जिसे संसार चाहता है, सांसारिक पदार्थों में नहीं, स्वयं तुम में ही विद्यमान है, जरा अपनी आत्मा में तो झाँको, उसे तो टटोलो। सारे प्रयत्नों से पहिले सम्यग्ज्ञान का उपार्जन करो । संसार तो दुःखों का घर है। भैया! यदि सुखी होना है, तो सम्यग्ज्ञान प्राप्त करो और आत्म कल्याण का मार्ग अपनाओ । 748
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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