SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 751
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है । पर मोह के कारण यह अज्ञानी प्राणी इस पुद्गल शरीर को ही मैं मान लेता है । मोह - वहिमपाकर्तु स्वीकुर्तु संयमश्रिम् | छेत्तु रागदुकोद्धन समत्वभवम्ब्यताम् ।। मोह अग्नि के समान है । अग्नि का संताप तो देह पर अल्पकालीन असर डालता है, किन्तु मोह जनित संताप आत्मा को तपाया हुआ चिरकाल पर्यन्त भवभ्रमण कराता है। मोहकर्म जब आता है, तो कई सद्गुणों को भस्म कर देता है। इसके ताप से समस्त संसार पीड़ित है, किन्तु फिर भी इसकी मोहनी शक्ति से जीव अपना पिण्ड नहीं छुड़ा पाते । जिनवाणी एक चाबी की तरह है, जिससे मोह-रूपी ताले को खोला जा सकता है । हमें भेदविज्ञान की कला में पारंगत होना चहिये | भावश्रुत की उपलब्धि के लिये हमारा अथक प्रयास चलना चाहिये । शरीर के साथ जीवन जीना भी कोई जीवन है ? शरीर तो जड़ है और आत्मा उजला हुआ चेतन है । जिस क्षण यह भेदविज्ञान हो जायेगा, उस समय न भोगों की लालसा रहेगी, न ही अन्य इच्छायें रहेंगी। मोह विलीन हुआ, समझो दुःख विलीन हुआ, सूर्य के उदित होने पर क्या कभी अन्धकार शेष रह सकता है? अतः सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करो । सम्यग्ज्ञान ही वह साधन है जिसके द्वारा आत्मा की अनुभूति, समुन्नति होती है, उसका विकास किया जा सकता है । जिनवाणी का स्वाध्याय करने पर इस शरीर के भीतर छुपा हुआ जो परमात्म तत्त्व है, उसका बोध प्राप्त हो जाता है । स्वभाव का बोध न होने के फलस्वरूप ही, संसारी प्राणी पर - पदार्थों की शरण पाने लालायित हो रहा है। बाहर पर - पदार्थों मे उपयोग भटकाते - भटकाते अनन्तकाल 736
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy