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________________ अधिक प्रिय मानते हैं, वह प्रेम पुत्र के लिये नहीं होता, अपने स्वार्थ के लिये होता है। पुत्र का बुढाप में अपनी सेवा करने वाला या कुल चलान वाला जानकर ही माता-पिता उससे प्रेम करते हैं। माता-पिता के ऊपर जब विपत्ति आ जावे ता वे अपन प्राण बचाने के लिये अपने दुध मुँहे (छोटे स) पुत्र को भी छोड़ जात हैं। बुन्देलखण्ड का प्रतापी वीर छत्रसाल, जब कुछ दिन का बच्चा ही था, तब बादशाह की सना की पकड़ से बचने के लिये उसके माता-पिता प्राण बचाकर भागे | इस छोटे बच्चे का भागने में बाधक समझ कर, वे उसे एक झाड़ी में छोड़ गये | छत्रसाल के भाग्य से उस झाड़ी के ऊपर मधु मक्खियों का एक छत्ता था, उसमें स शहद की बूंद टपक-टपक कर छाटे बच्चे (छत्रसाल) क मुख पर गिरती रही, उसी को चाट-चाट कर वह बच्चा अपनी भूख मिटाता रहा और खेलता, सोता रहा । सात दिन बाद जब बादशाही सेना का भय हटा, तब उस बच्चे के पास आकर, उसके माता पिता ने उसे जीवित पाया। _इस घटना से यह बात सिद्ध होती है कि स्वार्थी जीव जिसमें भी अनुराग करता, वह स्वार्थ साधन के लिये हाता है | वास्तव में जीव का यहाँ अपना कोई नहीं है। अतः पंडित श्री दौलतराम जी कह रहे हैं-कराड़ उपाय करके भी जैस-बन-तैसे भेद विज्ञान को हृदय मे धारणा करो । सम्यग्ज्ञान होने पर इस जीव को दृढ़ श्रद्धान हो जाता है कि मैं शरीर नहीं हूँ और न ही ये शरीरादि पर-पदार्थ मेरे हैं | मै इनसे भिन्न शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा हूँ | जब तक भेद-विज्ञान नहीं होता है, तब तक ज्ञान कज्ञान होता है, क्योंकि उस ज्ञान से आत्मा का कुछ हित नहीं होता, बल्कि अहित होता रहता है। अतएव सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पूर्व के ज्ञान कुमति, कुश्रुत, कुअवधि (731
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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