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________________ (II) विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान जो पर के कुटिल मन में स्थित, अर्द्ध चिन्तित, भविष्य में विचारी जानेवाली, भूतकाल में विचारी गई आदि बातों को जानता है, वह विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान है । (5) केवलज्ञान त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान का केवलज्ञान कहते हैं । पंडित श्री दौलतराम जी ने ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुये लिखा है | ज्ञान समान न आन जगत में, सुख को कारन | इहि परमामृत जन्म- जरा - मृतु, रोग निवारन || — इस जगत में ज्ञान के समान अन्य कोई पदार्थ सुख का कारण नहीं है । यह ज्ञान जन्म, जरा और मृत्यु रूपी रोगों को निवारण करने के लिए परम अमृत है । कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरैं जे । ज्ञानी के छिनमाहिं, त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते ।। मुनिव्रत धार, अनन्त - वार ग्रीवक उपजायौ । निज आतम-ज्ञान बिना, सुख लेश न पायो । सम्यग्ज्ञान के बिना जीव करोड़ों जन्मों में तपस्या करके जितने कर्मों को नष्ट करता है, उतने कर्म, ज्ञानी जीव एक क्षण में त्रिगुप्ति अर्थात् मन-वचन-काय को वश में करके, आसानी से नष्ट कर देता है । इस जीव ने अनन्त बार मुनिव्रत धारण किया और नव ग्रैवेयक विमानों में भी उत्पन्न हुआ लेकिन आत्म-ज्ञान न होने से इसे थोड़ा-सा भी सुख प्राप्त नहीं हुआ । तातैं जिनवर कथित तत्त्व, अभ्यास करीजै । संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लखि लीजै ।। 729
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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