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________________ से अपने सनातन धर्म में आ जाओ। यह विचार सुन मेरा उससे प्रेम हट गया और मैं घर छोड़कर चला गया। जब मैं बम्बई की परीक्षा में बैठा, प्रश्न पत्र लिख रहा था, मुझे एक पत्र मिला जिसमें लिखा था मेरी पत्नी का देहावसान हो गया है। मैंने मन ही मन कहा हे प्रभो ! आज मैं बन्धन से मुक्त हुआ। बाद वर्णी जी ने जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यह सब जिनवाणी के स्वाध्याय की महिमा है । आत्मा के स्वरूप को समझने एवं ज्ञान, वैराग्य की वृद्धि के लिये प्रतिदिन जिनवाणी का स्वाध्याय करना चाहिये | समणसुत्तं ग्रन्थ के सम्यज्ञान सूत्र में लिखा है जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है । जिससे जीव राग - विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है और जिससे मैत्री भाव बढ़ता है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है । सुनकर ही कल्याण या आत्महित का मार्ग जाना जा सकता है । सुनकर ही पाप या अहित का मार्ग जाना जा सकता है। अतः सुनकर ही हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर, जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना चाहिये । जैसे धागा पिरोयी हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्र ज्ञान युक्त जीव संसार में भटकता नहीं है । जो जीव आत्मा को शुद्ध जानता है, वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है और जो आत्मा को अशुद्ध अर्थात् देहादियुक्त जानता है, वह अशुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है । हे भव्य ! तू इस ज्ञान में सदा लीन रह । इसी में सदा संतुष्ट रह | 724
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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