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________________ सत् आचरण में ही यह सामर्थ्य है कि भव-भव के संचित कर्म नष्ट हो जायें । कर्मों का विनाश उन्हें देख-देखकर, खोज - खोजकर नहीं किया जा सकता है । वे परवस्तु हैं, उन पर मेरा कुछ अधिकार नहीं है । जीवने राग-द्वेष का भाव किया था, उसका निमित्त पाकर ये कार्माणवर्गणायें स्वयं कर्मरूप बन गयी थीं । न उस समय भी मैंने इन्हें कर्मरूप बनाया था और न इस समय भी मैं इन कर्मों का नाश कर सकता हूँ । पहिले भी मैंने राग-द्वेष के भाव किये थे, जिनका निमित्त पाकर कार्माण वर्गणायें अपने ही स्वतंत्र रूप से कर्मरूप हो गयी थीं और अब भी यह मैं आत्मा, सम्यग्ज्ञान के बल से अपने आप में रमण करूँ, आचरण करूं, तो ये कर्म स्वतंत्र रूप से इन शुद्ध भावों का निमित्त पाकर अथवा इन कर्मों के पोषक रागादिक निमित्त थे, उनके अभाव का निमित्त पाकर, ये कर्म स्वंय यहाँ से हट जाते हैं । मानों वे कहते हैं कि अब हमारा यहाँ क्या काम है ? यहाँ मेरा पोषक तत्त्व ही नहीं रहा । मेरी कौन पूछ करे? ये रागद्वेषादिक भाव ही मेरे रक्षक थे, मेरी पूछ करते थे, मुझे पालते -पोसते थे। अब मेरा पालनहार यहाँ नहीं है, वे स्वयं खिर जाते हैं । तो सम्यक् आचरण के निमित्त से समस्त कर्मों का क्षय होता है । जब सर्वकर्मों का क्षय हुआ तो जीव को अनन्त सुख की प्राप्ति होती है । देखो! केवल भावों भर की बात है । चीजें सब जहाँ की तहाँ हैं, कहीं पर वस्तु को अपनी सोच लेने से अपनी नहीं हो जाती हैं । स्वरूप सबका जुदा-जुदा है, हाँ जैसा है तैसा समझ लेवे तो उससे शान्ति मिलेगी। हम अपना ही ज्ञान और आनन्द भोगते हैं, पर भ्रम कर लिया जाय कि दूसरे का आनन्द भोगता हूँ तो उसे जीवनभर पिसना पड़ता है । क्योंकि दूसरे दूसरे ही हैं, वे हमारे आधीन नहीं हो सकते । 711
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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