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________________ जायेगा, वह संसार के संकटों से पार हो जायेगा । जैसा भगवान का स्वरूप प्रकट हुआ है, वैसा मेरा भी स्वरूप प्रकट हो, इस भावना से भगवान के स्वरूप का निरखकर बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ भगवान की पूजा आदि करना चाहिये । __ आचार्यों ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को माक्ष का मार्ग बताया है । अपने को अपने रूप, ज्ञाता-दृष्टा रूप श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, अपने - रूप जानना सम्यग्ज्ञान है, और ज्ञाता-दृष्टा रूप रह जाना ही सम्यक्चारित्र है। इन तीनों की एकता ही माक्षमार्ग है, और वीतराग दव-शास्त्र-गुरु उस मोक्षमार्ग की प्राप्ति में निमित्त या माध्यम हाते हैं। हमें देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से आत्मदर्शन करना है। श्री सुधासागर जी मुनिराज ने लिखा है-भगवान ने कभी नहीं कहा कि मेरी तरफ देखो | भगवान ने तो यह कहा कि मेरे पास आकर अपने आप को देखो | दर्पण के पास जाने का अर्थ यह नहीं है कि दर्पण को देखो। उसका अर्थ तो यह है कि दर्पण में अपना चेहरा देखो। वह तो अज्ञानी है, जो दर्पण के पास जाकर दर्पण को देखता है। कहने में आता है कि आप दर्पण देख रहे हैं, पर यथार्थ में आप दर्पण में अपना चेहरा देख रहे हैं। इसी प्रकार कहने में आता है कि मैं भगवान क दर्शन करने जा रहा हूँ, पर यथार्थ में हम भगवान की प्रतिमा में अपनी आत्मा क दर्शन करने जा रहे हैं। यदि हम भगवान की प्रतिमा को माध्यम बनाकर आत्मदर्शन का पुरुषार्थ करेंगे, तो मोक्षमार्ग बनेगा। शास्त्रों में विवक्षा-भेद से अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार के कथन मिलते हैं। उन्हें ठीक प्रकार से समझकर बुद्धि में अच्छी तरह बैठा लेना चाहिए कि कहाँ कौन-सी विवक्षा से क्या कहा गया है। जो सम्यग्ज्ञानी हैं, जिन्होंने आत्मतत्त्व को समझ लिया है, (704
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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