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________________ हुमान समकित को कारण, अष्ट- अंग- जुत धारो ।। जिनेन्द्र भगवान, परिग्रह रहित गुरु और दयामय धर्म सम्यग्दर्शन के कारण हैं । भगवान की ऐसी भक्ति करो कि स्वयं भगवान बन जाओ । जिस प्रकार सुगंधित पुष्प के योग से तेल भी सुगंधित हो जाता है, उसी प्रकार भगवान के गुण - स्मरण से भक्त भी शुद्ध हो जाता है। इस आत्मा में सिद्ध बनने तक की शक्ति है, जिसे हम देव - शास्त्र - गुरु का आलम्बन लेकर प्रकट कर सकते हैं। जब तक अपने आपका आत्मतत्त्व अपने उपयोग में दृढ़ता से स्थित न हो जाये, तब तक जन्म-मरण का संसार नहीं छूटता । यदि संसार से मुक्त होना चाहते हो, तो भगवान के स्वरूप को अनुभव में लो। हम भगवान की भक्ति क्यों करते हैं? क्योंकि हमें जो करना चाहिए, वह मार्ग उनसे मिलता है। जब-जब ज्ञान में प्रभु का स्वरूप अनुभव आता रहेगा, तब-तब इस जीव के कर्मकलंक ध्वस्त होंगे और मुक्ति के मार्ग का अनुभव होगा । मोक्ष का जो आनन्द है, वह आत्मा के शुद्ध स्वभाव का ही आनन्द है । भगवान अपने स्वभाव में लीन हैं, उनको देखकर हम भी अपने स्वभाव को याद करके, उनके बताये हुये मार्ग पर चल कर निज परमात्मा बनने का उपाय कर सकते हैं । देखो, जगत् में रुलते - रुलते चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते-करते आज आपने यह मनुष्यभव व जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बताया गया जिन-धर्म प्राप्त किया है । अतः अब तो मिथ्यात्व / मोह को छोड़ो | यह मोहजाल बड़ा विकट बंधन है । विषय- कषाय आत्मा का अहित करने वाले हैं, पर मोह में अपने आपकी गलती, अपने आपको मालूम नहीं होती । यदि कोई मनुष्य अपने मित्र के शत्रु से भी प्रेम करता है तो क्या मित्र के द्वारा आदर पा सकता है? नहीं । 700
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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