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________________ उसने भी दूसरा उपवास कर लिया, जिससे वह बहुत बेचैन हुई, शृंगार आदि करना भूल गयी। तीसरे दिन सठजी ने पुनः उपवास किया, तो बहू का भी तीसरा उपवास हो गया । अब बहू की इन्द्रियाँ (शरीर) शिथिल हो गयीं, उसको कुछ भी स्नान करना, शृंगार करना, बार-बार दर्पण देखना, वस्त्र बदलना आदि अच्छा नहीं लगने लगा। क्योंकि, यदि पेट में भोजन न हो तो कोई भी कार्य नहीं रुचता है। चौथ दिन बहू ने सेठ जी से कहा “पिताजी! यदि आप मुझ जीवित देखना चाहत हों तो पारणा कर लीजिये |” सेठजी न कहा – बेटी! सुनो, तीन दिन पहले तुमने जो कहा था कि मुझे अकेलापन अच्छा नहीं लगता, उसकी पूर्ति के लिये मैं कुछ कर लूँ, उसके बाद ही पारणा करूँगा। यह सनते ही बह को अपनी गलती महसस हई वह अपनी गलती की निन्दा करती हुई क्षमा माँगने लगी। उसने प्रतिज्ञा की कि आइन्दा कभी भी एसी गलती मेरे से नहीं होगी और आज से ही जीवन पर्यन्त के लिये ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हूँ | अब मैं कभी गरिष्ठ भोजन नहीं करूँगी, सादा भोजन ही करूँगी, शृंगार आदि नहीं करूंगी। उसने उस दिन से शीलवती महिलाओं और आर्यिकाओं के समागम में रहकर अपनी साधना शरू कर दी और कछ ही वर्षों में आर्यिका बनकर अपने जीवन का कृतार्थ कर लिया। गरिष्ठ भोजन करने से बड़े-स-बड़े धर्मात्मा, त्यागी-व्रती, दृढ़ संकल्पी भी अपने शील को दूषित कर लते हैं। अतः गरिष्ठ भाजन अर्थात् घी, शक्कर, दूध का अति मात्रा में सेवन अब्रह्म का कारण है। शरीर का श्रृंगार करना भी अब्रह्म का कारण है। श्रृंगार वास्तव में किया ही इसलिये जाता है कि मैं दूसरों को सुन्दर दिखू । श्रृंगार करने वाला स्वयं डूबता है और दूसरों को भी डूबोने में भी निमित्त बनता है। (642
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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