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________________ सारी बात सुन रहा था । वह सारी बात समझ गया, अतः उसने सारा का सारा धन लाकर सेठ जी से कहा कि धन निकाल कर ले जाने वाला तो मैं हूँ। हे जग के खम्भ महाराज ! आपका सारा धन हाजिर है । मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं है, जिसके कारण साधु संतो पर भी अविश्वास पैदा हो जाता है। ऐसे धन को आप ही संभालिये । यह कह कर वह कुपुत्र भी वैराग्य को धारण कर साधु बन गया । अभी किसी को आपने कुछ उधार दिया तो आपको उसके आचरण पर सन्देह होने लगता है । तो भीतर से परिग्रह का जो सम्बन्ध है, यह धर्म ध्यान में अधिक बाधक होता है । जिन महापुरुषां ने इस परिग्रह की आसक्ति को छोड़ दिया है, वे ही वास्तव में सुखी हैं तथा उन्होंने ही दुःखों से भरे हुये क्लेश रूप संसार समुद्र को पार कर लिया है। मुक्ति की इच्छा करने वाले भव्य जीवों को समस्त परिग्रह का परित्याग कर देना चाहिये । मेरा तो केवल यह आत्मा है और जगत के कुछ भी पदार्थ मेरे नहीं हैं । ऐसा विचार करके सर्व परिग्रह का त्याग कर देना वह कहलाता है, आकिंचन्य व्रत । हम सम्पदा वैभव आदि पदार्थों को पाकर अपने आपको सुखी मान रहे हैं, परन्तु इनका वियोग होने पर महान दुःखी होना पड़ता है और यह भी निश्चित ही है कि जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग अवश्य होगा। जगत के बाह्य पदार्थों से हमारा वियोग होगा ही, इसलिये हम क्यों उनकी परिणति में अपना मन लगावें? हम क्यों उनमें ममत्व करें? जब वे हम से छूटेंगे ही और हमें वियोग जन्य दुःख सहना ही पड़ेगा तो हमारा कर्तव्य है कि इससे पहले हमें छोड़ें, हम ही उन्हें छोड़ दें । परपदार्थों के प्रति जो हमारा ममत्व भाव है, वही परिग्रह है । बाह्य परिग्रह से रहित होकर भी यदि मुनि अभ्यन्तर में ममत्व भाव से संयुक्त हैं, तो वे वस्तुतः परिग्रह से रहित 599
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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