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________________ आत्मा में ज्ञान आनन्द आदि भावों के अतिरिक्त ओर कुछ नहीं पाया जाता | यह सबसे पृथक स्वतंत्र चैतन्य तत्त्व है। उसकी उपासना से सब कुछ मिलता है और बाहर की उपासना से सब कुछ गवाँ दिया जाता है। जिन वीतराग प्रभु के पास वस्त्र आदि कुछ भी परिग्रह नहीं है, ऐसे आकिंचन्य प्रभु की जा उपासना करता है उसको सर्व सिद्धि होती है और जो कोई यहाँ के मोही जनों की उपासना करता है, उसे कुछ नहीं मिलता, केवल क्लश ही भागता है। जैस समुद्र में पानी भरा होता है पर समुद्र से कभी नदी निकलते नहीं सुना और पर्वतों पर पानी एक बूंद भी नहीं दिखता, मगर उन पर्वतों से बड़ी-बड़ी नदियाँ निकलती हैं | इसी प्रकार जो आकिंचन्य हैं, उनकी उपासना से सर्व सिद्धि होती है और जो परिग्रही हैं, उनकी उपासना से कुछ भी सिद्धि नहीं है। इस परिग्रह से आत्मा का पूरा नहीं पड़ सकता, दुःख दूर हो सकते हैं तो आकिंचन्य धर्म को धारण करने से | परिग्रह की लालसा में तो सदा विडम्बना ही होती है। एक बार गुड़ भगवान के पास फरियाद करने गया। व मोहियों के भगवान होंगे, जिनके पास गया । गुड़ ने कहा भगवान! हमारी रक्षा करो। क्या हो गया गुड़ साहब? महाराज! लोगों ने हम पर बड़ा उपद्रव ढा रखा है। मैं जब खेत में खड़ा था ता लोग मुझे तोड़-तोड़कर खात थे, कोल्हू में हमें पेला, लोगों ने हमें पिया । वहाँ से बचे तो हमें जलाकर गुड़ बना लिया। मैं जब सड़ गया तो मझ तम्बाक में कूट-कूटकर खाया । मुझ पर बड़ा अन्याय हो रहा है | उन भगवान ने कहा-तुम्हारी कथा सुनकर हमारे मुँह में पानी आ गया है | तुम यहाँ य जल्दी भाग जाओ, नहीं ता तुम यहाँ बच नहीं सकते। इन बाह्य समागमों से सुख की आशा न करो, यह विराट व्यामोह है। परिग्रह की लालसा और परिग्रह का सम्बन्ध, केवल अपने क्लेशों के लिये ही होता (597)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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