SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दरबार से चला तो भिखारियों ने उसे घेर लिया, क्योंकि वे जानते थे कि वह जो कुछ धन उसके पास होता है, दान दे देता है। आदत ही ऐसी होने के कारण वह उन्हें दान देता गया और आगे बढ़ता गया और इस प्रकार बीच में ही सब रुपया दान कर दिया। जब वह घर पहुँचा तो उसके चित्त पर उदासी छा रही थी । स्त्री ने पूछा कि आप उदास क्यों हैं? राजा ने इनाम नहीं दिया क्या? वह बोला कि इनाम तो मिला था, परन्तु मैं इसलिये दुःखी हूँ कि - दारिद्रयानलसंतापः शान्तः संतोषवारिण | याचकाशावितान्तर्दाहः केनोपशाम्यते || दरिद्रता का संताप तो मैंने संतोष रूपी जल से शान्त कर लिया, परन्तु याचक लोग आशा लेकर मेरे पास आते हैं और उसकी पूर्ति मैं नहीं कर सकता। उनकी आशा का इस प्रकार घात हो जाने से मेरे मन में आघात पैदा हो गया है। उसे कैसे शान्त करूँ इसकी उदासी है ? जो दयालु प्रकृति के महापुरुष होते हैं, जिन्हें अपने वीतराग स्वरूप का बोध हो गया है, वे दान व त्याग में कभी पीछे नहीं हटते। जिस प्रकार व्यर्थ समझकर साँप काँचरी छोड़ देता है, और मोर अपने पंख छोड़ देता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष आत्महित में बाधक इन पर-पदार्थों को कचड़ा समझकर छोड़ देते हैं । रायचन्द्र जी बहुत बड़े सौदागर थे। एक बार उन्होंने एक व्यक्ति के साथ हीरा-मोती का सौदा किया। कागज लिख दिया और सौदा तय हो गया । पर खरीद के दिन से ही भाव तेजी से बढ़ने लगे और इतने अधिक बढ़ गये कि वह सामने वाला व्यक्ति यदि अपने घर को भी बेच दे तो भी सौदे की रकम नहीं चुका सकता । 525
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy