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________________ गृहस्थ अवस्था में जिसने भगवान की पूजा, भक्ति, दान, शील आदि श्रावक के कर्तव्यों का पालन नहीं किया, वे अपनी आत्मा को ठगने वाले हैं। उनका महा दुर्लभ मनुष्य देह का पाना निष्फल है । उससे कुछ फायदा नहीं । दान देने की प्रेरणा देते हुये आचार्य पद्मनन्दी मुनिराज ने लिखा हैसत्पात्रेषु यथाशक्ति, दानं देयं गृहस्थितैः । दान हीना भवतेषां निष्फलैव गृहस्थता । । गृहस्थ श्रावकों को यथाशक्ति मुनिराजों को दान अवश्य देना चाहिए, क्योंकि दान के बिना उनका गृहस्थाश्रम निष्फल ही होता है । धन-संचय कब तक करोगे? यह तो इसी प्रकार है जैसे कोई नाव में पत्थर डालता जाये, तब वह नाव एक दिन अवश्य डूबेगी । स्व और पर का उपकार करने के लिए अपने द्वारा अर्जित धन का चार प्रकार के दान आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान, औषधिदान में उपयोग अवश्य करना चाहिये । 1. आहारदानः- पड़गाहन, उच्चासन, पाद प्रक्षालन, पूजा, नमस्कार, मन, वचन, काय शुद्धि, आहारजल शुद्धि नवधाभक्ति पूर्वक संतोषी, अलोभी, विवेकी आदि सप्तगुणों के साथ श्रावक के द्वारा शास्त्रोक्त विधि अनुसार मुनि, आर्यिका क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं को शुद्ध आहार जल प्रदान करना, आहार दान कहलाता है । आहार दान समस्त दानों में प्रधान है। प्राणी जीवन, शक्ति, बल, बुद्धि ये सभी आहार के बिना नष्ट हो जाते हैं। जिसने आहार दान दिया, उसने प्राणियों को जीवन, शक्ति, बल, बुद्धि सभी कुछ दिया। मुनिराजों को आहारदान देकर श्रावक अपने आप को धन्य समझते हैं । आहारदान देने से ही मुनि व श्रावक का समस्त धर्म चलता है । 497
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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