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________________ सदुपयोग दान के रूप में, आहार दान के रूप में, ज्ञान दान क रूप में, औषधि दान के रूप में व अभय दान के रूप में करते हैं। इसके अलावा जरुरतमदों को करुणादान भी करते है। ये सभी दान स्व-पर के उपकार के लिये हैं। देना ही जगत में ऊँचा है। मनुष्य की निर्मल कीर्ति दान से ही फैलती है। दानी में कोई दोष हों तो वह दोष भी दान देने से ढंक जाते हैं। दान देने से बैरी भी बैर छोड़ देते हैं। धन पाना तो दान से ही सफल है। यदि धन पाया है तो दान में ही उद्यम करो। दान दना श्रावक का आवश्यक कर्तव्य है। जो उत्तम पात्रों को दान देता है, वह जीव भाग-भूमि व स्वर्ग को प्राप्त करता है | जिसने भी पूर्व भवों में दान दिया है, उसने अनेक प्रकार की सुख-सामग्री पाई है तथा जो अभी देगा, सो आगे पायेगा। आचार्य समन्तभद्र महाराज ने लिखा है - जिस प्रकार योग्य भूमि में पड़ा हुआ वट का छोटा-सा बीज कालान्तर में बहुत बड़ा वट का वृक्ष बनकर छाया प्रदान करता है, उसी प्रकार योग्य पात्र को दिया हुआ छोटा-सा दान भी समय पाकर अपरिमित वैभव को प्रदान करता है। धन्य कुमार को घर से निकलने पर स्थान-स्थान पर जो अनायास ही धन का लाभ हाता था, वह उसक पूर्व पर्याय में दिय दान का ही फल था । गृहस्थ धन का संग्रह करते हैं | गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिये धनार्जन करना जरूरी होता है, किन्तु यह बात एकदम सच है कि उस धनार्जन में आरम्भ-परिग्रह का महापाप भी उसे लगता है | इस महापाप की शुद्धि के लिये ही आचार्यों न गृहस्थों को दान देने का उपदेश दिया है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है - (493)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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