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________________ प्रतिमा नहीं निकलती, वैसे ही बिना तप के आत्मा परमात्मा नहीं बन सकती । जो तप जाता है, वह चमक जाता है । यदि स्वर्ण - पाषाण को तपाया नहीं जाए, तो स्वर्ण प्राप्ति संभव नहीं । स्वर्ण - पाषाण को तपाने से ही स्वर्ण की प्राप्ति होगी । इच्छा निरोध करना वास्तविक तप है । तपस्वी का वेष धारण कर लिया, पर कामनाएं ज्यां-की-त्यों मौजूद रहीं, तो कोरा तपस्वी वेष तप का प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता, मात्र जन समुदाय को पागल बनाना है और स्व आत्म वंचना करना है । मन और इन्द्रियों का दमन करना तपस्वी के लिये अनिवार्य है और इनका दमन या निग्रह तप के अभाव में संभव नहीं । क्योंकि मन व इन्द्रियों का निग्रह करने वाला साधन यदि कोई है तो वह है तप । आत्मा की विषय कषाय रूपी कालिमा संयम - तप के माध्यम से ही दूर होगी। संयम - तप ही जीवन का सुरक्षा कवच है। दुर्ग के बिना जिस प्रकार सम्राट की सुरक्षा नहीं होती, उसके ऊपर करोड़ों आपत्तियाँ एवं शत्रुओं का आक्रमण संभव है, उसी प्रकार आत्म-सम्राट की सुरक्षा संयम - तप रूपी दुर्ग से ही संभव है, अन्यथा अनेक प्रकार के विकारी भाव रूपी शत्रु आक्रमण कर इस आत्म सम्राट को निर्बल करके असंयम रूपी घोर अटवी में डाल देंगे । यदि आत्मा को परमात्मा बनाने की इच्छा है तो संयम - तप के पथ पर चलो । आचार्यों का कहना है जितनी शक्ति हो, उतना तप अवश्य करो, यदि शक्ति नहीं है, तो आप श्रद्धान करो कि कल्याण का मार्ग संयम-तप ही है । जिस प्रकार अग्नि की अनुपस्थिति में भोजन आदि का पकना कठिन है, उसी प्रकार तपाग्नि में तपे बिना कर्मों का क्षय होना असंभव है। आप स्वयं विचार करें कि तप के बिना आज तक किसी को मोक्ष हुआ है क्या ? तप ही आत्मिक संपदा, 'केवलज्ञान' 461
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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