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________________ महान दुःखद उपसर्ग को प्राप्त हाकर भी वे मुनिराज अपने साम्यभाव से नहीं चिगे और शुक्लध्यान में लीन होकर सबन मोक्ष रमा का वरण किया । उस समय का दृश्य सोचो उन मुनिराजों ने अपने साम्यभाव को कैसे स्थिर रखा होगा। एक-एक साधु घानी में डाला जा रहा है, 499 साधु पेले जा चुके हैं, जिनके रक्त से खून की नदी बह रही है, पर्वत बराबर हड्डियों का ढेर सामने दिखाई दे रहा हैं, चारों ओर जनता त्राही-त्राही कर रही है, फिर भी कोई रक्षा नहीं कर सकता। अपने परमोपकारी आचार्यादि को नेत्रों के समक्ष इस प्रकार की हृदय विदारक दशा को प्राप्त होते देखकर भी उन अन्तिम मुनिराज को अपने साम्यभाव को ज्यों-का-त्यों स्थिर रखना है | इतना ही नहीं वे मुनिराज जानते हैं अब घानी में डाले जाने की अन्तिम बारी मेरी है और देखो अब मुझ उसमें डाल ही दिया गया है, फिर भी निर्लिप्त हूँ, निर्विकल्प हूँ, और अपने ही ज्ञानरस में निमग्न हूँ, क्योंकि मेरे लिये तो जैसे अन्य मुनिराज मुझस भिन्न थे, वैसे मेरा शरीर भी मुझ से भिन्न है। जैसे अन्य मुनिराजों के छिन्न-भिन्न किये जाने पर मुझे कष्ट नहीं हुआ, वैस मेरे ज्ञायक स्वभाव से भिन्न इस शरीर के छिन्न-भिन्न किये जाने पर मुझे कोई कष्ट नहीं है और व मुनिराज अपने साम्यभाव स च्युत नहीं हुये तथा समस्त कर्मों को नष्ट कर मुक्ति का प्राप्त कर लिया। यह सब संयम वा तप की ही महिमा है | तपश्चरण के द्वारा समस्त इच्छाओं का अभाव होन पर ही इस संसार के आवागमन से छुटकारा प्राप्त हो सकता है। हम सभी का अपनी शक्ति के अनुसार तप अवश्य करना चाहिये । भगवान ऋषभदेव के तप का वर्णन आया है। तप के माध्यम से जिस आनन्द को भगवान ऋषभदेव ने प्राप्त किया था, वही आनन्द (456)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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