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________________ चाहता, नहीं जाना चाहता । मैं उसकी कीमत चुकाने को तैयार हूँ। मैं उनके चरणों पर राजकोष की रत्नराशि बिखेर दूँगा । अपना राजमुकुट उनके चरणों पर रख दूँगा, यहाँ तक कि अपना विशाल साम्राज्य भी उन्हें समर्पित करने में नहीं हिचकिचाऊँगा । पर मैं नरक नहीं जाना चाहता हूँ । क्या इतनी विशाल कीमत चुकाने पर भी वे मेरा नरकगमन नहीं टालेंग ? ----- ऐसी ही विचारधाराओं के बीच सम्राट गोते खा रहे थे, विचार कर रहे थे, बड़े बेचैन और चिन्तित थे । सबेरा हो गया लेकिन उन्हें नींद नहीं आ सकी। सूर्य की नरम किरणें विपुलाचल पर्वत पर पहुँची ही थीं कि सम्राट श्रेणिक, भी वहाँ पहुँच गये। भगवान की वंदना कर उनसे अपनी हृदय-व्यथा बड़े अनुनय-विनय से कही । यह भी कहा कि वे नरकदण्ड टालने के लिये अपनी रत्न राशि, मुकुट और साम्राज्य भी भगवान के चरणों में अर्पित करने को तैयार हैं। भगवान की दिव्य ध्वनि में आया भव्य श्रेणिक ! तुम्हारे ही राज्य में पुण्य-प्रभ नाम का एक श्रावक है उसकी एक दिन की सामायिक ले आओ, फिर मैं आगे का उपाय बताऊंगा | श्रेणिक बड़े हर्ष, उत्साह और आशा से विपुलाचल से उतर कर रथ पर बैठे और सारथी को पुण्य प्रभ के घर की ओर रथ ले जाने का संकेत किया । सम्राट जब श्रावक के द्वार पर पहुँचे तो उसने महाराज का यथावत् आदर सत्कार किया । सम्राट बोले हे श्रावक श्रेष्ठ ! मैं तुमसे याचना करने आया हूँ । मुझे निराश न करना, मूल्य जो माँगोगे मैं दे दूँगा और उसकी एक दिन की सामायिक की माँग की । महाराज की माँग सुनकर वह श्रावक दृढ़ गंभीर वाणी में 453 —
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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