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________________ इस सकोरे के अन्दर से रत्नमाला निकालकर पहन लो | बटे ने वैसा ही किया | उसने उस सकोर क अन्दर स रत्नमाला का निकालकर पहन लिया और फिर उसी सकोर में रखकर बन्द कर दिया । दूसरे दिन वही स्त्री, जो कि सकोरा दे गयी थी, आती है। वह सोच रही थी कि उसका बेटा तो सर्प के काटने से मर चुका होगा। पर वहाँ जाकर देखा तो बात कुछ और ही थी। उसने पूछा-बहन पहनाई थी रत्नों की माला अपने बेटे को? हाँ बहिन पहनाई थी। वह तो बहुत सुन्दर रत्नों की माला है। कहाँ रखी है? उसी प्रकार सकोरे में। जब उस स्त्री ने उस सकोरे में हाथ डाला ता उस जहरीले सर्प ने उसको डस लिया और उसकी मृत्यु हो गयी। रूपलक्ष्मी पंचमी के पाँच-पाँच उपवास करती थी जिससे उसकी व उसके पुत्र की रक्षा हुई। यह शरीर तो अशुचि है दुःखों को उत्पन्न करने वाला है, और विनाशीक भी है, इसको कितना ही खिलाओ, पिलाओ, सेवा करा पर अन्त में यह नियम से धोखा ही दगा | इस शरीर का सदुपयोग तो तप करन में ही है | हमस जितना बन सक इन बारह प्रकार क तपों को अत्यन्त हितकारी समझकर करते रहना चाहिये । तप की महिमा जिनागम में पद-पद पर गाई है। भगवती आराधना में लिखा है-जगत में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो निर्दोष तप से पुरुष प्राप्त न कर सके। जैसे सोने में लगा हुआ मैल सोने को आग में तपान से दूर हो जाता है, उसी प्रकार अनादिकाल से आत्मा के ऊपर जो मलिनता चढ़ी हुई है वह तपस्या की आग स नष्ट हो जाती है। उत्तम प्रकार से किये गय तप के फल का वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता। उत्तम तप ही सब प्रकार से सुख देने वाला है। कहा भी है (449)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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