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________________ वैराग्य हो गया, वे वारिषेण महाराज से बाले-महाराज! अब आप मुझे फिर से दीक्षा दीजिये | अब मैं अपनी इच्छाओं को निरोध करने वाला तप करूँगा। __ इच्छा निरोधः तपः कहकर इच्छाओं के निरोध को तप कहा है | विचार करो जीव के दुःख का मूल कारण तो कषाय और इन्द्रिय-विषयों की इच्छायें ही हैं, इच्छाओं का अभाव हो तो जीव को सुख की प्राप्ति हो। एक उर्दू कवि ने कहा है - इच्छाओं आकांक्षाओं के पड़ की जड़ काटकर फेक देना चाहिये, क्योंकि इस पेड़ में न कभी फूल लगे, न फल आया। इच्छायें अनन्त हैं, जिनकी कभी पूर्ति नहीं हो सकती | तप इन इच्छाओं पर नियंत्रण करने में सहायक है। इच्छा निराध रूप तपाग्नि में जब आत्मा तपता है ता अपने मोह, राग, द्वेष रूप या क्रोध मान. माया और लोभ रूप समस्त विकारों को तज देता है और यह मलिन आत्मा एक दिन परमात्मा अर्थात् शुद्ध आत्मा बन जाती है। जैसे चकले पर बेलन से बेली गई आटे की रोटी को यदि अग्नि पर सेकते हैं तो फूलकर उसक दो भाग हो जाते हैं। इसी प्रकार अनशनादि बाह्य तप और प्रायश्चित्त आदि अन्तरंग तपों रूप आचरण के सेंक से आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न हो जाते हैं | तप दो प्रकार के होत हैं-अन्तरंग तप और बाह्य तप | बाह्य तप 6 प्रकार के हैं - 1. अनशन - अनशन का अर्थ है उपवास | 4 प्रकार के आहार खाद्य, स्वाद, लेह्य और पेय का परित्याग करना, सो अनशन है। जहाँ भोजन के साथ-साथ विषय-कषायों का भी त्याग हो उसे ही उपवास कहते हैं। (430
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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