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________________ तुम पति क साथ घर बैठी हा| हमने मुनिराज को बहुत समझाया लेकिन वे नहीं माने | अब हम तुमसे लाचार होकर कह रहे हैं कि तुम मथुरालाल को भेजो कि वह अपने मित्र ब्रह्मगुलाल का वन से लौटा लाये | मथुरालाल बोले-वह किसी का कहना नहीं मानगा, बहुत जिद्दी है। वह वापिस नहीं आयगा। फिर स्वयं सोचने लगा कि हमें क्या सारी जिन्दगी यहीं रहना है, हम भी संयम धारण कर लेंगे । जिससे सारा संसार जान जायेगा हमारी दोस्ती को और अपनी पत्नी से कह दिया कि अगर वह नहीं आयेगा ता हम भी नहीं आयेंगे, यह हमारी प्रतिज्ञा है, फिर तुम मत पछताना | जंगल में जाकर ब्रह्मगुलाल मुनिराज से मथुरालाल ने कहा कि मुनिव्रत के सम्बन्ध में हमें विस्तार से समझाओ। बचपन में तो हमने दूसरों का हित करने वाली विद्या सीखी। जवानी अवस्था भोग भोगने की है और त्याग की वृद्धावस्था होती है। बिना भोग भोगे जोग धारण मत करो। तुमने मन में यह क्या विचारा? मुनि ब्रह्मगुलाल बाले-भोग भोगते समय तो अच्छ लगते हैं लेकिन उदय काल में इनका फल नियम से कटु होता है । ये पंचेन्द्रिय के भोग संसार रूपी रोग को बढ़ाने वाले जगत के शत्रु हैं - भोग बुर भव रोग बढ़ावें, बैरी हैं जग जियके | बरस होत विपाक समय, अति सेवत लागं नीके || ये पाँचों इन्द्रियों के भोग तो अग्नि के समान हैं। ज्यों-ज्यों अग्नि में ईंधन डालो, त्यों-त्यों वह भड़कती है | इसी प्रकार ज्यों-ज्यां भागों का सेवन करते हैं, त्यो-त्यों भोगने की इच्छा और बढ़ती जाती है, पर तृष्णा क्षीण नहीं होती। जब भोग भोगने की अवस्था (379
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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