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________________ स्वाध्याय में प्रमाद उत्पन्न करता है | काम वासना, अभिमान आदि की वृद्धि करता है और यदि उपवास, एकासन, आत्मध्यान, कायोत्सर्ग आदि कार्यों द्वारा इस शरीर को दण्डित किया जावे, सुखाया जावे तो, यह शरीर आत्मा को सुखदायक बन जाता है। इस तरह शरीर और दुर्जन मनुष्य का स्वभाव प्रायः एक समान है। अतः शरीर से प्रीति अज्ञानी ही किया करते हैं। यह शरीर रूचि या अनुराग करने योग्य नहीं है, विरक्ति करने योग्य है। इसलिये इस शरीर को पाकर संयम धारण करके तपश्चरण करना चाहिये । जिस युवावस्था (जवानी) पर मनुष्य को अभिमान होता है, एक साधारण से रोग क लग जाने पर वह जवानी का जोश कपूर की तरह उड़ जाता है। फिर भी यह अज्ञानी मनुष्य स्त्री-पुरुषों के शरीर को देखकर उन पर आसक्त हो जाता है | उज्जैन के भर्तृहरि राजा अपने समय के बहुत प्रसिद्ध न्यायी राजा हुये हैं। वे अपना अच्छा राजपाट और सुन्दर तरुण रानी को त्यागकर साधु बन गये थे। उनकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है - राजा भर्तृहरि का अपनी छोटी रानी पिंगला पर बहुत प्रम था, पिंगला बहुत सुन्दर, तरुणी, मधुरभाषिणी नारी श्री | एक दिन एक ब्राह्मण को कहीं से एक अमरफल मिला, जिसको खा लेने से शरीर जीवन भर सुन्दर सुडौल बना रहता, बुढ़ापे क चिन्ह शरीर में प्रकट नहीं होते । ब्राह्मण ने वह फल पाकर मन में विचार किया कि मैं इस फल को खाकर क्या करूँगा, मेरा शरीर क्या इतना उपयोगी है? यदि राजा भर्तृहरि इस फल को खा लें तो उससे सारी प्रजा का लाभ होगा। वह बड़ा धर्मात्मा न्यायप्रिय राजा है, अतः यह फल मैं उसी को भेंट करूँगा। यह सोचकर उसने वह फल राजा भर्तृहरि का भेंट कर दिया। (363)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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