SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभाव में आत्मज्ञान होना संभव नहीं है। आत्मज्ञान के अभाव में जीवन उसी भांति है, जैसे सागर में नाव और नाव में मांझी तो है पर मांझी को होश नहीं है। उस नाव का कोई ठिकाना नहीं है, उसको वह कहाँ ले जायगा। जीवन रूपी नौका को सही दिशा में ले जाने के लिये संयम रूपी पतवार आवश्यक है। इन्द्रियों को काबू में करना, यह कषायों को जीतने का उपाय है। पर आज के समय में लोग ऐसा धर्म पसन्द करते हैं कि कुछ छोड़ना-छाड़ना न पड़े, हंसी दिल्लगी में समय कटे, पर संयम की ओर ध्यान नहीं है। कैसे आत्मतत्त्व में बढ़ें, कैस ज्ञान की आराधना में बढ़े, कैसे विकल्पों से बचें, इस ओर दृष्टि नहीं है। इसलिये स्वच्छन्दता बढ़ रही है, किन्तु इसस लाभ कुछ भी नहीं है। हम कौआ उड़ाने के लिये रत्न फेक रहे हैं या राख के लिय रत्नों को जला रहे हैं। कर्म के वेग को सहने की क्षमता असंयमी के पास नहीं हाती। वह तो जब जैसा कर्म का उदय आया वैसा कर लेता है | जब सुनने की इच्छा हुई सुन लिया, दखने की इच्छा हुई देख लिया, खाने की इच्छा हुई खाने लगे | कोई भी समय निश्चित नहीं है, कब खाना, कितने बार खाना। किसी ने लिखा है - जो एक बार खाये वह योगी| जो दो बार खाये वह भोगी। जो तीन बार खाये वह रागी और जो बार-बार खाये उसकी क्या दशा होगी। यह असंयम का, बार-बार खाने का ही परिणाम है, कि व्यक्ति इतने बीमार रहने लगे हैं कि हर मुहल्ले में एक-एक डाक्टर की आवश्यकता पड़ने लगी है। पहले जब लाग संयम से रहते थे तब पूरे गाँव में एक वैद्य होता था, पर अब तो हर गली में 2-4 डाक्टर (348)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy