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________________ है। इन सभी प्रवृत्तियों में रहने वाले लोग अपने अंतरंग संयम का पालन कर सकने की योग्यता रख सकते हैं। जो विषयासक्त हैं, कषायों में लीन हैं, व्यसनी हैं, अन्टसन्ट इधर-उधर बोला करते हैं, ऐस जन क्या आत्मा में स्थिर होने का प्रयत्न कर सकते हैं? नहीं कर सकते । अतः हम संयम स रहें और अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन करें, जिससे विभाव भावों से हटकर हम अपने शुद्धचारित्र का पालन कर सकन के पात्र रह सकें | संयम धर्म अनन्त है, नहीं है इसका अंत | संयम धारण कर बने, वीतराग मय संत || वीतराग मय संत, अंत कर्मों का करते । निर्भय हो ते आप, नहीं मरने से डरत || विशद सिन्धु कहते हैं, भाई त्याग असंयम | मन-वच-तन से जीवन में, तुम धारो संयम || धर्म का सातवाँ लक्षण है-उत्तम तप । संयम की साधना तप से पूर्ण होती है | मानवजीवन एक शुद्ध स्वच्छ दर्पण के समान होता है। समय-समय पर इस पर कर्मों की धूल की परतें जमती रहती हैं। ये पर्ते तप की बुहारी द्वारा ही हटती हैं। तपरूपी बुहारी, आत्मा को स्वच्छ बनाने में परम् सहायक सिद्ध होती है | जैसे कोयले को अग्नि में जलाने से उसका कालापन खत्म हो जाता है और सफेद राख हो जाती है, इसी प्रकार आत्मा में जो कर्मों की कालिख है, वह तपरूपी अग्नि में जलने से दूर हो जाती है और आत्मा पवित्र हो जाती है | निर्दोष तप से सबकुछ प्राप्त हो जाता है। जैसे प्रज्जवलित अग्नि तृण को जलाती है, वैसे तपरूपी अग्नि कर्मरूपी तृणों को जलाती है। तप से सभी अर्थों की सिद्धि होती है। तप का महत्त्व 20)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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