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________________ वह मायाचारी पुरुष शंकित रहता है। ऐसा मायाचारी पुरुष धर्म का पात्र नहीं होता। माया कषाय को शल्य में गिना गया है | धर्म का प्रारम्भ सरलता से होता है। जब हमारी आत्मा के परिणाम सरल होने लगत हैं, तब आत्मा में धर्म का बीजारोपण होता है। मन में कुछ, कह कुछ रहे, करेंगे कुछ, यह एक भीतरी विडम्बना है | जैसे माला बनाने के लिए धागे में दाने पिराये जाते हैं, तो वक्र छेद वाले दाने में धाग का प्रवेश नहीं होता, इसी प्रकार मायाचार से भरे हुये वक्र हृदय में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता। जग जीवों को ठग रही, माया ठगनी भ्रात, आत्म गुणों का हो रहा, उनके सारे घात, उन के सारे घात, रहे माया के बन्दे , रहत हैं परिणाम, सदा ही उनक गन्दे ।। विशद सिन्धु कहते हैं, तुम माया स डरना, करो सरलता प्राप्त, न मायाचारी करना ।। धर्म का चौथा लक्षण है-उत्तम शौच । 'शुचिर्भावं इति शौच" | आत्मा की शुचिता का, स्वच्छता का, निर्मलता का होना ही शौच धर्म है | यह धर्म लोभ कषाय के अभाव में प्रगट होता है | बाह्य वस्तु में उपादेय बुद्धि होना, उसे आसक्तिपूर्वक ग्रहण किये रहना, ये सब लोभ के परिणाम हैं। 'लाभ पाप का बाप बखाना', ऐसी प्रसिद्धि है | क्योंकि लोभ सर्व प्रकार क पापों का जनक है। इसमें तृष्णा भाव है। इस तृष्णा में यह मनुष्य पायी हुई सम्पदा को भी आराम से नहीं भोग सकता | लाभ कभी खत्म नहीं होता। इस पर Once more, once more की उक्ति चरितार्थ होती है। राजवार्तिक में अकलंक स्वामी ने लिखा है- लाभात, लोभा जायेत, अर्थात् लाभ से लोभ का जन्म होता है। एक बार लाभ हा गया, फिर बार-बार लाभ मिलता (17)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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