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________________ लगता है। अब खरगाश के बच्चे को दखकर एक हिरण का बच्चा साचता है, अरे यह मेरे स छोटा और शेर के पास खेल रहा है, मैं भी जाकर खेलूँगा, वह भी जाकर खेलने लगता है। पर यह अवस्था कब तक सम्भव है? जब तक शर सोया हुआ है। उसी प्रकार, जब तक आत्मा अपने बोध से परान्मुख है, अपने परिचय से विमुख है, तब तक कर्म आत्मा को संसार में भटकाते रहते हैं, रुलाते रहत हैं। पर जब आत्मा अपने आप से परिचित हो जाता है, अपनी अनन्त शक्ति का पहचान लेता है, तब कर्म सब अपने-अपने रास्ते पर चल जाते हैं, अपना रास्ता नापते नजर आते हैं। अपने परिचय की महिमा जिनवाणी में सर्वत्र बतलाई गई है। सम्यग्दर्शन होने पर इस जीव को अपना परिचय प्राप्त हो जाता है कि मैं अनादि काल से संसार में भटकने वाला जीव हूँ, भटकने का कारण क्या है? मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र | मैं यदि इनसे अलग हो जाता हूँ तो मोक्ष प्राप्त करने में दर नहीं है। जितने भी सिद्ध भगवान हुय हैं वे भी पहले संसारी थे, ऐसा नहीं कि कोई पहल स ही सिद्ध रहा हो। कोई पहले से ही सिद्ध नहीं रहा आया, लेकिन संसारी दशा में उन्होंने अपने आपको पहचाना कि मेरा ऐसा स्वरूप है और मैं कहाँ भटक रहा है? जब उनमं जागति आ गई तो उन्होंने जैसे हिरण है, खरगोश है, मक्खी, मच्छर आदि शेर के पास खेल रहे हैं, पर जैस ही शेर जागता है तो सबसे पहले वह उसे पकड़ लेता है जिसे वह सबसे ज्यादा पकड़ने योग्य समझता है | वैसे ही जब संसारी प्राणी प्रतिबुद्ध होता है, तो वह आक्रमण करता है किस पर, मोहनीय कर्म पर | मोक्षमार्ग का पूरा पुरुषार्थ मोह का जीतने का है | मोहकर्म को जीतने के बाद शष कर्म अपने आप थोड़े ही समय में क्षय हो जाते हैं। जो अपने आप का पहचान लेता है, वह पर के प्रति निर्मोही हो (298)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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