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________________ हैं कि इतनी-सी बात मान लो कि कोई पदार्थ मेरा नहीं हैं, तो सब सुख तुम्हारे पास आ जायगा। जिन तीर्थकरों की हम उपासना करत हैं, उन तीर्थंकरों ने इसी मार्ग का अनुसरण किया, निज को निज और पर को पर जाना और फिर सबको छोड़कर रत्नत्रय की साधना की, जिसके परिणाम स्वरूप वे परमात्मा बने | आत्मा पहले वीतराग होता है, बाद में सर्वज्ञ बनता है। आत्मा का स्नान राग-द्वेष छूटने से होगा। जितने अंशों में राग-द्वष कम होता जायेगा, हमारी आत्मा निर्मल होती जायेगी। जिसने समस्त जगत से भिन्न ज्ञान-स्वभाव निज आत्मा को पहचाना, शौच धर्म उसी के होता है। पर्याय में बद्धि हो श्रद्धा हो कि मैं मनष्य हूँ, कुटुम्बी हूँ, इत्यादि भाव हों तो उसका मन तो सदा अपवित्र ही रहता है, वहाँ शौचधर्म प्रगट नहीं हो सकता। ___ संसार में परिग्रह को पाप की जड़ कहा गया है | वही समस्त पापों को करानेवाला है। इस परिग्रह के लोभ में पड़कर हम अत्यन्त दुर्लभता से प्राप्त अपनी इस मनुष्य पर्याय को व्यर्थ गँवा रहे हैं। एक भील के पास कुछ रत्न थे, वह उन्हें लिये चला जा रहा था | उसे मार्ग में एक वणिक मिला । वह हीरों का मूल्य जानता था। वणिक से भील ने कहा-मैं इन पत्थरों का क्या करूँगा? तुम ले लो और जो मूल्य देना हो वह दे दा | वणिक ने मात्र चार रुपये दिये और चमकीले पत्थर लेकर चला गया। उसन मात्र एक चमकीले पत्थर को बेचकर अट्टालिका बनवाई और सुख से रहने लागा। एक दिन वह अट्टालिका के द्वार पर खड़ा था, उसी समय वह भील उसके दरवाजे के आगे से निकला और वणिक को देखकर बोला-तुम ता हाट-बाजार करत थे, क्या किसी सेठ के यहाँ नौकरी कर ली? (283)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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