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________________ इन्द्रादिक पदवी नहिं चाहूँ, विषयन में नाहिं लुभाऊँ । रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज पद दीजै ।। इसी कारण जब कभी उन्हें अर्थ और परमार्थ के बीच चुनाव करने का अवसर आता है, तो व अर्थ की अपेक्षा परमार्थ को ही चुनते हैं। एक बार मोतीलाल जी वर्णी, गणेशप्रसाद जी वर्णी और चिरोंजा बाई सोनागिरि की वन्दना को गये | वहाँ चिरोंजाबाई की सासु और ननद भी आ गईं। सबन पूजा-पाठ, वन्दना में दो दिन अच्छे बिताये | तीसर दिन वन्दना कर वापस लौटने का विचार था। उसी दिन चिरांजा बाई के गाँव सिमरा से उनका परिचित आया। उसने कहा -माता जी! आपक घर में चोरी हो गई है। चोर घर में कई जगह खुदाई कर गये हैं। पुलिस ने आपको बुलवाया है, जिससे जाँच-पड़ताल हो सके | इस खबर से उनकी सासु और ननद रोने लगीं। वर्णीजी भी उदास हो गये | पर चिरोंजाबाई पर इसका अलग ही प्रभाव पड़ा । वे बालीं-ठीक है, जो कुछ ले गये, सो ले गये | मुझे उसकी चिन्ता नहीं। मैं अभी वहाँ नहीं जाती। वैसे तो कल ही जाने वाली थी, पर अब पाँच दिन और सोनागिरि में रहूँगी, जिससे धन के प्रति जो माह है वह कम हो जाये | सबके आग्रह करने पर भी वह नहीं गईं, पाँच दिन और सोनागिरि में वंदना की। लौटते समय उन्होंने कहा कि मैंने परिग्रह-परिमाण व्रत ले लिया है। चोरी के बाद जितना भी बचा होगा, मेरे परिग्रह-परिमाण की इतनी ही सीमा होगी | उनकी उत्कृष्ट तटस्थता से वर्णीजी बड़े प्रभावित हुये। वे अपने घर वापस पहुँची। सारा (276
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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