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________________ आकर यह सब रत्न जड़ित कटोरे देखती है तो सोचती है यह तो साक्षात लक्ष्मी है | सठानी आगे आती है और भिखरिन क पैर पकड़ कर कहती है कि - आप ये कटोरे छोड़कर कहाँ जा रही हैं? वह भिखारिन कहती है कि मेरा तो नियम कुछ ऐसा ही है, मैं जहाँ भोजन करती हूँ, उन रत्न जड़ित थालों को व कटोरों को वहीं फेक देती हूँ | उनमें पुनः भोजन व पानी लेना मेरे धर्म के विपरीत है। अब सेठ-सेठानी, पुत्र-पुत्रवधू सब मिलकर उनसे यहीं रहने के लिये आग्रह करने लगते हैं। बहुत प्रार्थना करने पर वह भिखारिन कहती है जिस घर में साधु ठहरा हुआ हो, उस घर में मैं कैसे रह सकती हूँ? लक्ष्मी की साक्षात मूर्ति को ठुकराकर लोग स्वर्ग-नरक की चर्चा सुनने के लिये भला बाबा को कैस अपने घर रखें? यह कब संभव हो सकता है? अब जल्दी-से-जल्दी बाबा को घर से निकाला जाता है | सन्यासी ‘जाता हूँ, जाता हूँ' कहता हुआ जाने लगता है | वह कहता है-मैंन पहले ही कहा था मैं चार महीने यहीं रहूँगा। तुम अपन वादे से मुकर रहे हो | पर सुनना किसको था? किसी ने भी सन्यासी की बात पर ध्यान नहीं दिया। इस तरह सन्यासी चला जाता है। अब वह भिखारिन कहती है, तुम लोग जब इनसे वचनबद्ध थे फिर इन्हें निकाल क्यों दिया । कल मेरे साथ भी ऐसा ही करोगे | ऐसे लोगों के यहाँ मैं भी नहीं रहना चाहती। जाते-जाते लक्ष्मी विष्णु से पूछती है-क्यों देख लिया न कौन अधिक प्रिय है? लोग गुनगुनाने लगत हैं कि दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम। जो धन आदि के लोभ में पड़कर धर्म को भूल जाते हैं, उन्हें (265)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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