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________________ वास्तव में सुखी वही है जो हर हाल में संतुष्ट रहता है। और सकारात्मक सोच रखता है। अतः जितना है उतन में ही संतोष धारण करो और ज्यादा का लोभ मत करो। लोभ ठीक नहीं होता, यह सब जानते हैं । लोभ के परिणाम बड़े खराब निकलते हैं, यह भी सब जानते हैं, पर जानते हुय भी वह छूट नहीं रहा है, यह भी सब जानते हैं। चाहे धन संग्रह का लोभ हो, चाहे अच्छे खान-पहनने का लाभ हो, चाहे लेन-देन के संबंध में लोभ हो | यह हमारी कषाय का तीव्र प्रभाव है कि लोभ के दुष्परिणामां को जानते हुय भी हम उस पर विजय नहीं पा रह हैं। लोभ को 'पाप का बाप' माना जाता है। पाप के त्याग की बात सब जगह आती है कि, भैया! पाप मत करो। पर अगर कहीं पाप के बाप से पाला पड़ जाये, तो फिर क्या करोगे? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह यह तो कहलाते हैं पाप, और लोभ को कहा है पाप का-बाप । इससे यह सिद्ध होता है कि यह लोभ उन पापों से भी घातक है। क्योंकि लोभ ही सब प्रकार के पाप कराता है। हमें लोभ न हो तो किसी भी प्रकार के पाप करने की आवश्यकता ही नहीं है | कहा गया है - कोहो पीई पणासेई, माण विणय नासणो । माया मित्ताणि नासेई, लोहो सव्व विणासणो । । क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट करता है। क्रोध व्यक्ति को अन्धा बना देता है। क्रोध के आते ही व्यक्ति का विवेक खो जाता है। मान व्यक्ति को बहरा बना देता है, अहंकारी व्यक्ति किसी की बात सुनने को तैयार नहीं होता। रावण को सभी ने (261
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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